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भगवान श्री कुन्दकुन्द-कहान जैन शास्त्रमाला
२४६ (४५) निश्चयश्रद्धा-ज्ञान कैसे प्रगट हो ? _____ अनेक जीव दयारूप परिणामों वाले होते है, तथापि वे शास्त्रोंका सच्चा अर्थ नहीं समझ सकते; इसलिये दयारूप परिणाम शास्त्रोंके समझने में कारण नहीं हैं। इसीप्रकार मौन धारण करें, सत्य बोलें और ब्रह्मचर्य आदिके परिणाम करें फिर भी शास्त्रका प्राशय नहीं समझ सकते, अर्थात् यहाँ ऐसा बताया है कि आत्माके शुद्ध चैतन्य स्वभावका आश्रय ही सभ्य रज्ञानका उपाय है, कोई भी मंद-कपायरूप परिणाम सम्यग्ज्ञानका उपाय नहीं है।
इस समय शुभपरिणाम करनेसे पश्चात् सम्यग्ज्ञानका उपाय हो जायेगा, यह मान्यता मिथ्या है। अनंतवार शुभ परिणाम करके स्वर्गमें जानेवाले जीव भी शास्त्रोंके तात्पर्यको नहीं समझ पाये । तथा वर्तमानमें भी ऐसे अनेक जीव दिखाई देते है जो कि वर्षोंसे शुभपरिणाम, मंदकषाय' तथा व्रत-प्रतिमा आदि करने पर शास्त्रके सच्चे अर्थको नहीं जानते, अर्थात् उनके ज्ञानकी व्यवहारशुद्धि भी नहीं है, अभी ज्ञानको व्यवहार शुद्धिके बिना जो चारित्रकी व्यवहारशुद्धि करना चाहते है, वे जीव ज्ञानके पुरुपार्थको नहीं समझे.
ऐसे ही दयादिके भावरूप मंद-कषायसे भी व्यवहारशुद्धि नहीं होती । और ज्ञानकी व्यवहारशुद्धिसे आत्मज्ञान नहीं होता। आत्माके आश्रयसे ही सम्यग्ज्ञान होता है, यही धर्म है। इस धर्मकी प्रतीतिके बिना तथा वास्तविक व्यवहारज्ञान न होनेसे-शास्त्रके सच्चे अर्थको न समझ ले तबतक जीवके सम्यग्ज्ञान नहीं हो सकता। दयादिरूप मंदकषा.यके परिणामोंसे व्यवहार ज्ञानकी भी शुद्धि नहीं होती।
बाह्य-क्रियाओं पर परिणामोंका आधार नहीं है । कोई द्रव्यलिगी मुनियोंके साथ रहता हो और किसीके वाह्यक्रिया बराबर होती हो तथापि एक नवमें ग्रैवेयकमें जाता है और दूसरा पहले स्वर्गमें, क्योंकि-परिणामोंमें कषायकी मंदता बाह्यक्रियासे नहीं होती।
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