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-* सम्यग्दर्शन जो शुभपरिणाम अंतरंगमें करता है उससे व्यवहार ज्ञानकी शुद्धि नहीं होती किन्तु वह यथार्थ ज्ञानके अभ्याससे ही होती है।
ज्ञानकी व्यवहारशुद्धिसे भी श्रात्सवभावका सस्यरज्ञान नहीं होता, किन्तु अपने परमात्मस्वभावका रागरहितरूपसे अनुभव करे तभी सम्यज्ञान होता है, सम्यग्ज्ञानमें पराश्रय नहीं स्वभावका ही आश्रय है।
वस्तुस्वभाव ही स्वतंत्र और परिपूर्ण है, उसे किसीके आश्रयकी आवश्यक्ता नहीं है । स्वभावके आश्रयसे ही सम्यग्दर्शन होता है। नवमेंअवेयकमें जानेवाले जीवके देव-शास्त्र-गुरुकी यथार्थ श्रद्धा, ग्यारह अंगका ज्ञान और पंचमहाव्रतोंका पालन ऐले परिणाम होने पर भी चैतन्य स्वभाव की श्रद्धा करनेके लिये वे परिणाम काममें नहीं आते। स्वभावके लक्षपूर्वक मदकषाय हो तो वहाँ मंदुकषायकी मुख्यता नहीं रही कितु शुद्धस्वभावके लक्ष्यकी ही मुख्यता है । स्वभावकी श्रद्धाको व्यवहार-रत्नत्रयकी सहायता नहीं होती।
कषायकी मंदतारूप आचरणके द्वारा श्रद्धा-ज्ञानका व्यवहार' नहीं सुधरता। शास्त्रमें जड़-चैतन्यकी स्वाधीनता, उपादान-निमित्तकी स्वतंत्रता बतलाई है जो यह नहीं समझता उसके ज्ञानका व्यवहार भी नहीं सुघरा है। चैतन्यस्वभावका ज्ञान तो व्यवहारज्ञानसे भी पार है। आत्मज्ञान सो परमार्थज्ञान है। और शास्त्रके श्राशयका यथार्थ ज्ञान सो ज्ञानका व्यवहार है। जिसके ज्ञानका व्यवहार भी ठीक नहीं है उसके परमार्थज्ञान कैसा ?
__ बाह्यक्रिया तो ज्ञानका कारण नहीं है, किंतु जो अंतरंगमें व्यवहार आचरणके मंदकषायरूप परिणाम होते हैं वे परिणाम भी शास्त्रज्ञानके कारण नहीं होते । और स्वभावका ज्ञान तो शास्त्रज्ञानसे भी पार है शासज्ञानके रागके अवलंवनको दूर करके नव परमात्मस्वभावका अनुभव करता है उस समय सम्यक श्रद्धा होती है। जिस समय श्रद्धामें रागका नाश करके निज परमात्मस्वभावको अपना जाना उस समय जीवको परमात्मा ही उपादेय है। आत्मा तो त्रिकाल परमात्मा ही है, कितु जव राग का आलम्बन