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- सम्यग्दर्शन जैनधर्म तथा सत् समागमका योग मिलने पर भी यदि स्वभाव वलसे सत्की श्रद्धा नहीं की तो फिर चौरासीके जन्म मरणमें ऐसी उत्तम नर देह मिलना दुर्लभ है।
आचार्य महाराज कहते है कि एकवार स्वाश्रयकी श्रद्धा करके इतना तो कह कि मेरा स्वभावको 'परका आश्रय नहीं है, बस, इस प्रकार स्वाश्रयकी श्रद्धा करनेसे तेरी मुक्ति निश्चित है । सभी आत्मा प्रभु हैं। जिसने अपनी प्रभुताको मान लिया वह प्रभु हो गया।
___इसप्रकार प्रत्येक जीवका सर्व प्रथम कर्तव्य सत्समागम होने पर स्वभावकी यथार्थ श्रद्धा (सम्यग्दर्शन ) करना है। निश्चयसे यही धर्म (मुक्ति ) का प्रथम साधन है।
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बन्ध और मोक्षके कारण परद्रव्यके चितन वहीं वन्धके कारण हैं और केवल विशुद्ध स्वद्रव्यके चिंतन ही मोक्षके कारण हैं।
[ तत्त्वज्ञान तरंगिणी १५-१६ ] Meamelnicaliliancanilunsankhasnii ams Miscari.liticantilesanti Sangh
सम्यक्त्वी सर्वत्र सुखी सम्यग्दर्शन सहित जीवका नरकवास भी श्रेष्ठ है, परन्तु सम्यग्दर्शन रहित जीवका स्वर्गमे रहना भी शोभा नहीं देता, क्योंकि आत्मभान विना स्वर्गमें भी वह दुःखी है। जहाँ आत्मज्ञान है वहीं सच्चा सख है।
[सारसमुच्चय ३६] गणaneelp TERI SADA RSAL पणा पाटया! EPIPS