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भगवान श्री कुन्दकुन्द - कहान जैन शाखमाला
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(४४) धर्म साधन
धर्मके लिये प्रधानतया दो वस्तुओंकी आवश्यक्ता है । १- क्षेत्र विशुद्धि, २ - यथार्थ बीज ।
क्षेत्र विशुद्धि – संसारके अशुभ निमित्तोंके प्रति जो आसक्ति है उसमें मन्दता, ब्रह्मचर्यका रंग, कषायकी मदता, देव, गुरुके प्रति भक्ति तथा सत्की रुचि, आदिका होना क्षेत्र विशुद्धि है । वह प्रथम होती ही है ।
किन्तु केवल क्षेत्र विशुद्धिसे ही धर्म नहीं होता । क्षेत्रविशुद्धि तो प्रत्येक जोवने अनेकबार की है, क्षेत्रविशुद्धि ( यदि भान सहित हो ) तो बाह्यसाधन है, व्यवहार साधन है ।
पहले क्षेत्रविशुद्धिके बिना कभी भी धर्म नहीं हो क्षेत्र विशुद्धिके होनेपर भी यदि यथार्थ बीज न हो तो भी
सकता ।
सकता । किन्तु धर्म नहीं हो
यथार्थ बीज — मेरा स्वभाव निरपेक्ष बन्ध मोक्षके भेदसे रहित, स्वतंत्र पर निमित्तके आश्रयसे रहित है; स्वाश्रय स्वभावके बल पर ही मेरी शुद्धता प्रगट होती है, इस प्रकार से अखंड निरपेक्ष स्वभावकी निश्चय श्रद्धाका होना सो यथार्थ बीज है । वही अन्तर साधन अर्थात् निश्चय साधन है । जीवने कभी अनादिकालमें स्वभावकी निश्चय श्रद्धा नही की है । उस श्रद्धाके बिना अनेक बार बाह्य साधन किये, फिर भी धर्म प्राप्त नहीं हुआ ।
इसलिये धर्ममें मुख्य साधन है यथार्थ श्रद्धा, और जहाँ यथार्थ श्रद्धा होती है वहाँ बाह्य साधन सहज होते हैं। बिना यथार्थ श्रद्धाके वाह्य साधनसे कभी धर्म नहीं होता ।
इसलिये प्रत्येक जीवका प्रथम कर्तव्य आत्म स्वरूपकी यथार्थ श्रद्धा करना है । अनन्त कालमें दुर्लभ नर देह, और फिर उसमें उत्तम