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-* सम्यग्दशन त्रिकाल अखण्ड वस्तु ही निश्चय मोक्षका कारण है कितु परमार्थ : तो वस्तुमे कारण कार्यका भेद भी नहीं है, कार्य कारणका भेद भी व्यवहार है। एक अखण्ड वस्तुमें कार्य कारणके भेदके विचारसे विकल्प होता है इसलिये वह भी व्यवहार है। तथापि व्यवहारमें भी कार्य कारण भेद हैं अवश्य । यदि कार्य कारण भेद सर्वथा न हों तो मोक्षदशाको प्रगट करनेके लिये भी नहीं कहा जा सकता। इसलिये अवस्थामें साधक साध्यका भेद है, परन्तु अभेदके लक्ष्यके समय व्यवहारका लक्ष्य नहीं होता क्योंकि व्यवहारके लक्ष्यमें भेद होता है और भेदके लक्ष्यमें परमार्थ-अभेद स्वरूप लक्ष्यमें नहीं आता, इसलिये सम्यग्दर्शनके लक्ष्यमें अभेद ही होते, एकरुप अभेद वस्तु ही सम्यग्दर्शनका विषय है ।
सम्यग्दर्शन ही शांतिका उपाय है। अनादिसे आत्माके अबण्ड रसको सम्यग्दर्शन पूर्वक नही जाना, इसलिये परमें और विकल्पमें जीव रसको मान रहा है। परन्तु मैं अखंड एकरूप स्वभाव हूँ उसीमें मेरा रस है। परमें कहीं भी मेरा रस नहीं है। इसप्रकार स्वभावदृष्टिके वलसे एकबार सवको नीरस बनाने, जो शुभ विकल्प उठते है वे भी मेरी शांतिके साधक नही हैं । मेरी शांति मेरे स्वरूप में है, इसप्रकार स्वरूपके रसानुभवमें समस्त संसारको नीरस वनादे तो तुझे सहजानन्द स्वरूपके अमृत रसकी अपूर्व शांतिका अनुभव प्रगट होगा, उसका उपाय सम्यग्दर्शन ही है।
संसारका अभाव सम्यग्दर्शनसे ही होता है
अनन्तकालसे अनंत जीव संसार में परिभ्रमण कर रहे हैं और अनन्तकालमें अनंत जीव सम्यग्दर्शनके द्वारा पूर्ण स्वरूपकी प्रतीति करके मुक्तिको प्राप्त हुये हैं इस जीवने ससार पक्ष तो अनादिन प्रहण किया है परन्तु सिद्धका पक्ष कभी ग्रहण नहीं किया, अब सिद्धका पक्ष फरक अपने सिद्ध स्वरूपको जानकर संसारकै अभाव फरनका अवसर भाया और उसका उपाय एक मात्र सम्यग्दर्शन ही है।