________________
भगवान श्री कुन्दकुन्द-कहान जैन शास्त्रमाला
२४५ पर्यायको और विकारको तदवस्थ जानकर इस प्रकारका विवेक किया कि 'जो परिपूर्ण स्वभाव है सो मैं हूँ और जो विकार है सो मै नहीं हूँ तब वह सम्यक् हुआ। सम्यग्ज्ञान सम्यग्दर्शनरूप प्रगट पर्यायको और सम्यग्दर्शनको विषयभूत परिपूर्ण वस्तुको तथा अवस्थाकी कमीको तदवस्थ जानता है, ज्ञानमें अवस्थाकी स्वीकृति है। इसप्रकार सम्यग्दर्शन तो एक निश्चयको ही ( अभेद स्वरूपको ही) स्वीकार करता है और सम्यग्दर्शनका अविनाभावी ( साथ ही रहने वाला ) सम्यग्ज्ञान निश्चय और व्यवहार दोनोंको बराबर जानकर विवेक करता है। यदि निश्चय व्यवहार दोनोंको न जाने तो ज्ञान प्रमाण (सम्यक् ) नहीं हो सकता। यदि व्यवहारको लक्ष्य करे तो दृष्टि खोटी (विपरीत) ठहरती है
और जो व्यवहारको जाने ही नहीं तो ज्ञान मिथ्या ठहरता है। ज्ञान निश्चय व्यवहारका विवेक करता है इसलिये वह सम्यक् है (समीचीन है ) और दृष्टि व्यवहारके लक्ष्यको छोड़कर निश्चयको स्वीकार करे तो सम्यक है। सम्यग्दर्शन का विषय क्या है ? और मोक्षका परमार्थ
कारण कौन है ? सम्यग्दर्शनके विषयमें मोक्ष पर्याय और द्रव्यसे भेद नहीं है, द्रव्य ही परिपूर्ण है वह सम्यग्दर्शनको मान्य है। बन्ध मोक्ष भी सम्यग्दर्शनको मान्य नहीं बन्ध-मोक्षकी पर्याय, साधकदशाका भंगभेद इन सभीको सम्यग्ज्ञान जानता है।
सम्यग्दर्शनका विपय परिपूर्ण द्रव्य है, वही मोक्षका परमार्थ कारण है पंचमहाव्रतादिको अथवा विकल्पको मोक्षका कारण कहना सो स्थूल व्यवहार है और सम्यग्दर्शन ज्ञानचारित्ररूप साधक अवस्थाको मोक्ष . का कारण कहना सो भी व्यवहार है क्योंकि उस साधक अवस्थाका भी जव अभाव होता है तब मोक्ष दशा प्रगट होती है। अर्थात् वह अभावरूप कारण है इसलिये व्यवहार है।