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भगवान श्री कुन्दकुन्द-कहान जैन शास्त्रमाला
२४३ नही धुसा जा सकता। मोटर चाहे जहाँ तक भीतर ले जाय किन्तु अन्तमें तो मोटरसे उतरकर स्वयं ही भीतर जाना पड़ता है, इसीप्रकार नय पक्षके विकल्पोंवाली मोटर चाहे जितनी दौड़ाये 'मैं ज्ञायक हूँ, अभेद हूँ, शुद्ध हूँ, ऐसे विकल्प करे तो भी स्वरूपके ऑगन तक ही जाया जा सकता है किन्तु स्वरूपानुभव करते सपय तो वे सब विकल्प छोड़ देने ही पड़ते हैं। विकल्प रखकर स्वरूपानुभव नहीं हो सकता। नय पक्षका ज्ञान उस स्वरूपके ऑगनमें आनेके लिये आवश्यक है।
"मैं स्वाधीन ज्ञान स्वरूपी आत्मा हूँ, कर्म जड़ है, जड़ कर्म मेरे स्वरूपको नहीं रोक सकते, मैं विकार करूं तो कर्मोंको निमित्त कहा जा सकता है, किन्तु कर्म मुझे विकार नहीं कराते क्योंकि दोनों द्रव्य भिन्न हैं, वे कोई एक दूसरेका कुछ नहीं करते, मैं जड़का कुछ नहीं करता और जड़ मेरा कुछ नहीं करता, जो रागद्वेष होता है उसे कर्म नहीं कराता तथा वह पर वस्तुमें नहीं होता किन्तु मेरी अवस्थामें होता है, वह रागद्वेष मेरा स्वभाव नहीं है, निश्चयसे मेरा स्वभाव राग रहित ज्ञान स्वरूप है। इस प्रकार सभी पहलुओंका (नयों का) ज्ञान पहले करना चाहिये किन्तु जब तक इतना करता है तबतक भी भेदका लक्ष्य है। भेदके लक्ष्यसे अभेद आत्म स्वरूपका अनुभव नहीं हो सकता, तथापि पहले उन भेदोंको जानना चाहिये, जब इतना जानले तब समझना चाहिये कि वह स्वरूपके ऑगन तक आया है वादमें जब अभेदका लक्ष्य करता है तब भेदका लक्ष्य छूट जाता है और स्वरूपका अनुभव होता है अर्थात् अपूर्व सम्यग्दर्शन प्रगट होता है। इसप्रकार यद्यपि स्वरूपोन्मुख होनेसे पूर्व नयपक्षके विचार होते तो हैं परन्तु वे नयपक्षके कोई भी विचार स्वरूपानुभवमें सहायक तक नहीं होते।
सम्यग्दर्शन और सम्यग्ज्ञान का संबंध किसके साथ है ?
सम्यग्दर्शन निर्विकल्प सामान्य गुण है उसका मात्र निश्चयअखड स्वभावके साथ ही संबंध है अखंड द्रव्य जो भंग-भेद रहित है वही