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-* सम्यग्दशन सम्यग्दर्शनका स्वरूप क्या है, देहकी किसी क्रियासे सम्यग्दर्शन नहीं होता, जड़ कर्मोंसे नहीं होता, अशुभराग अथवा शुभरागके लक्ष्यसे भी सम्यग्दर्शन नहीं होता और मैं पुण्य पापके परिणामोंसे रहित ज्ञायक स्वरूप हूँ' ऐसा विचार भी स्वरूपका अनुभव करानेके लिये समर्थ नहीं है। 'मैं ज्ञायक हूँ' इसप्रकारके विचारमें जो अटका सो वह भेदके विचारमें अटक गया किन्तु स्वरूप तो ज्ञातादृष्टा है उसका अनुभव ही सम्यग्दर्शन है । भेदके विचारमें अटक जाना सम्यग्दर्शनका स्वरूप नहीं है।
जो वस्तु है वह अपने आप परिपूर्ण स्वभावसे भरी हुई है आत्मा का स्वभाव परकी अपेक्षासे रहित एकरूप है कर्मोंके संबंधते युक्त हूँ अथवा कर्मोंके संबंधसे रहित हूँ, इसप्रकारकी अपेक्षाओंसे उस स्वभावका लन्य नहीं होता । यद्यपि आत्मस्वभाव तो अवन्ध ही है परन्तु 'मैं अबंध हूँ इल प्रकारके विकल्पको भी छोड़कर निर्विकल्प ज्ञातादृष्टा निरपेक्ष स्वभावका लक्ष्य करते ही सम्यग्दर्शन प्रगट होता है।
हे प्रभो ! तेरी प्रभुताकी महिमा अंतरंगमें परिपूर्ण है अनादिकाल से उसकी सम्यक प्रतीतिके विना उसका अनुभव नहीं होता । अनादिकालम पर लक्ष किया है कितु स्वभावका लक्ष्य नहीं किया है। शरीरादिम तेरा सुख नहीं है, शुभरागमें तेरा सुख नहीं है और 'शुभराग रहित मेरा स्वरुप है। इसप्रकारके भेद विचारमें भी तेरा सुख नहीं है इसलिये उस भेटके विचारमें अटक जाना भी अज्ञानी का कार्य है और उस नय पक्षक भेदया लक्ष्य छोड़कर अमेद ज्ञातास्वभावका लक्ष्य करना सो सम्यग्दर्शन है और उसीमें सुख है। अभेदस्वभावका लक्ष्य कहो, नातास्वरूपका अनुभव कहो, सुख कहो, धर्म कहो अथवा सम्यग्दर्शन कहो वह सब यही है।
विकल्प रखकर स्वरूपका अनुभव नहीं हो सकता।
अखंडानन्द अभेद आत्माका लक्ष्य नयों द्वारा नहीं होता। पोर्ट किसी महलमें जानेके लिये चाहे जितनी जीस मोटर येशिल यह महलके दरवाजे तक ही जा सकती है, मोटरफै माथ महल अन्दर मन्म