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भगवान श्री कुन्दकुन्द-कहान जैन शास्त्रमाला
उत्तर-गृहस्थ दृशामें आठ वर्षकी उम्रमें भी सम्यग्ज्ञान हो सकता है। गृहस्थ दशामें आत्मप्रतीति की जा सकती है। पहले तो निःशंक सम्यग्दर्शन प्रगट करना चाहिये, सम्यग्दर्शनके होते ही सम्यग्ज्ञान हो जाता है।
और सम्यग्दर्शन-सम्यग्ज्ञान होने पर स्वभावके पुरुषार्थ द्वारा विकारको दूर करके जीव अविकारी दशाको प्रगट किये बिना नहीं रहता। अल्प पुरु षार्थके कारण कदाचित् विकारके दूर होने में देर लो तथापि उसके दर्शनज्ञानमें मिथ्यात्व नहीं रहता।
-निश्चय और व्यवहारआत्माका यथार्थ ज्ञान होनेपर जीवको ऐसा निश्चय होता है कि मेरा स्वभाव शुद्ध निर्दोष है तथापि मेरी अवस्थामें नो विकार और अशुद्धता है वह मेरा दोष है, वह मेरा वास्तविक स्वरूप नहीं है, इसलिये वह त्याज्य है-हेय है । जबतक मेरा लक्ष किसी अन्य वस्तुमे या विकारमें रहेगा तबतक अविकारी दशा नहीं होगी; किन्तु जब उस संयोग और विकार परसे अपने लक्षको हटाकर मैं अपने शुद्ध अविकारी ध्रुव स्वरूपमें लक्षको स्थिर करूंगा तब विकार दूर होकर अविकारी दशा प्रगट होगी।
मेरा ज्ञान स्वरूप नित्य है और रागादि अनित्य है; एक रूप ज्ञान स्वरूपके आश्रय रहने पर रागादि दूर हो जाते हैं। अवस्था-पर्याय तो क्षणिक है, और वह प्रतिक्षण बदलती रहती है, इसलिये उसके आश्रयसे ज्ञान स्थिर नही रहता, किन्तु उसमें वृत्ति उद्भूत होती है, इसलिये अवस्था का लक्ष छोड़ना चाहिये और त्रैकालिक शुद्ध स्वरूप पर लक्ष स्थापित करना चाहिये । यदि प्रकारान्तरसे कहा जाय तो निश्चय स्वभाव पर लक्ष करके व्यवहारका लक्ष छोड़नेसे शुद्धता प्रगट होती है ।
-सम्यग्दर्शन का फलचारित्रकी शुद्धता एक साथ सपूर्ण प्रगट नहीं हो जाती किन्तु क्रमशः प्रगट होती है। जबतक अपूर्ण शुद्ध दशा रहती है तबतक साधक दशा कहलाती है। यदि कोई कहे कि शुद्धता कितनी प्रगट होती है? तो कहते
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