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- सम्यग्दर्शन यथार्थ समझजीव अपने स्वरूपको भूल रहा है, इसलिये वह अजीवको अपना मानता है, और इसीलिये पुण्य, पाप, आस्रव, वन्ध होता है। यथार्थ समझके द्वारा सम्यग्दर्शन प्राप्त कर लेने पर उसे अपना स्वरूप अजीवसे और विकारसे भिन्न लक्षमें आता है, और इससे पुण्य, पाप, आसव, बन्ध क्रमशः दूर होकर संवर, निर्जरा, मोक्ष होता है । इसलिये सर्व प्रथम स्थूल और सूक्ष्म दोनों प्रकारके मिथ्यात्वको यथार्थ समझके द्वारा दूर करके
आत्मस्वरूपकी यथार्थ श्रद्धा करके सम्यग्दर्शनके द्वारा, अपने स्वरूपके) महा भ्रमका अभाव करना चाहिये।
-क्रिया और ग्रहण त्याग__ यथार्थ समझके द्वारा सम्यग्दर्शन और सम्यग्ज्ञान प्राप्त करते ही संवर-निर्जरा रूप धर्म प्रारम्भ हो जाता है और अनंत संसारके मूलरूप मिथ्यात्वका ध्वंस होता है। अनन्त परवस्तुओंसे अपनेको हानि लाभ होता है, ऐसी मान्यताके दूर होने पर अनन्त रागद्वेपकी असत् क्रियाका त्याग
और ज्ञानकी सत् क्रियाका ग्रहण होता है। यही सर्व प्रथम धर्मकी सत् क्रिया है। इसे समझे विना धर्मकी क्रिया किंचित् मात्र भी नहीं हो सकती। देह तो जड़ है, उसकी क्रियाके साथ धर्मका कोई संबंध नहीं है।
'आत्माका स्वभाव कैसा है, उसकी विकारी तथा अविकारी अवस्था किस प्रकारकी होती है, और विकारी अवस्थाके समय मे निमित्तका संयोग होता है, एवं अविकारी अवस्थाके समय से निमित स्वयं छूट जाते हैं यह सव जानना चाहिये इसके लिये स्व-परके भेदजान पूर्वक नव तत्त्वका ज्ञान होना चाहिये।
-सम्यग्दर्शन-सम्यग्ज्ञानप्रश्न-आत्माको सम्यन्नान किस पम्र और किन दशाम प्रगट हो सकता है?