________________
भगवान श्री कुन्दकुन्द-कहान जैन शास्त्रमाला
२१५ ___ भगवानके उपदेशमें नव तत्त्वोंका स्वरूप बताया जाता है। यदि कोई 'आत्मा' शुद्ध है, इसप्रकार आत्मा-आत्मा ही कहा करे तो अज्ञानी जीव कुछ भी नहीं समझ सकेंगे, इसलिये यह समझाया जाता है कि श्रात्माका शुद्ध स्वभाव क्या है, उसकी विकारी या अविकारी दशा क्या है, आत्माके सुखका कारण क्या है, दुःखका कारण क्या है, संसार मार्ग क्या है, नवतत्त्व क्या हैं, देव, गुरु, शास्त्र क्या है, इत्यादि । किन्तु उसमें आत्माका स्वरूप समझनेकी मुख्यता होती है।
-नव तत्त्वआत्माका स्वभाव तो शुद्ध ही है, किन्तु अवस्थामें विकारी और अविकारी भेद हैं । पुण्य पाप विकार है और उसका फल आस्रव तथा बंध है। यह चारों (पुण्य, पाप, आस्रव, बंध ) जीवके दुःखका कारण हैं, इसलिये वे त्याज्य हैं । आत्मस्वरूपको यथार्थ समझकर पुण्य पापको दूर करके स्थिरता करना सो संवर, निर्जरा, मोक्ष है। यह तीनों आत्माके सुख का कारण हैं, इसलिये वे प्रगट करने योग्य हैं। जीव स्वयं ज्ञानमय है, परन्तु ज्ञानरहित अजीव वस्तुके लक्षसे भूल करता है, इसलिये जीवअजीवकी भिन्नता समझाई जाती है। इस प्रकार नव तत्त्वका स्वरूप समझना चाहिये।
द्रव्य और पर्यायआत्मा अपनी शक्तिसे त्रिकाल शुद्ध है, किन्तु उसकी वर्तमान पर्याय बदलती रहती है । अर्थात् शक्ति स्वभावसे स्थिर रहकर भी अवस्था » में परिवर्तन होता रहता है। अवस्थामें स्वयं अपने स्वरूपको भूल कर नीव मिथ्यात्वरूप महाभूलको उत्पन्न करता है, वह भूल अवस्थामें है;
और क्योंकि अवस्था बदलती है, इसलिये वह भूल सच्ची समझके द्वारा स्वयं दूर कर सकता है। अवस्था (पर्याय ) में भूल करने वाला जीव स्वयं है इसलिये वह स्वयं ही भूलको दूर कर सकता है।