________________
-* सम्यग्दर्शन प्रारम्भसे ही आत्माके स्वावलम्वी शुद्ध स्वरूपकी समझ, उसकी श्रद्धा और उसका ज्ञान करनेका जो मार्ग है वह नहीं रुचा, किन्तु अनादि कालसे पराश्रय रुचा है, इसलिये सत्को सुनते हुये कई जीवोंको ऐसा लगता है कि अरे ! यदि आत्माका ऐसा स्वरूप मानेंगे तो समाज व्यवस्था कैसे निभेगी ? जब कि समाजमें रह रहे हैं तब एक दूसरेका कुछ करना तो चाहिये न ? ऐसी पराश्रित मान्यतासे संसारका पक्ष नहीं छोड़ा और आत्माको नहीं पहिचाना।
-सत्यको समझनेकी आवश्यक्ता__ स्वाधीन सत्यको स्वीकार करनेसे जीवको कदापि हानि नहीं होती, और समाजको भी सत्य सत्त्वको माननेसे कदापि कोई हानि नहीं होगी। समाज अपनी अज्ञानतासे ही दुःखी है, और वह दुःख अपनी यथार्थ समझसे ही दूर हो सकता है, इसलिये यथार्थ समझ करनी चाहिये। जो यह मानता है कि सच्ची समझते हानि होगी वह सत्यका महान् अनादर करता है। मिथ्यात्वका महापाप दूर करनेके लिये सर्वप्रथम यथार्थ तत्त्वकी सच्ची पहचान करनेका अभ्यास करना आवश्यक है।
सर्वज्ञ वीतराग देव, निग्रंथ गुरु और उनके द्वारा कहे गये अनेकान्तमय सत् शास्त्रोंका ठीक निर्णय करना चाहिये। स्वयं हिताहित का निर्णय करके, सत्यको समझनेका जिज्ञासु होकर, शानियोसे शुद्ध आत्माकी वात सुनकर विचारके द्वारा निर्णय करना चाहिये। यही मिथ्यात्वको दूर करनेका उपाय है।
-भगवानके उपदेशका सारप्रश्न-भगवानके उपदेशमें मुख्यतया क्या कयन होता है?
उत्तर-भगवान स्वयं अपने पुरुषार्थ द्वारा स्वरपकी सभी गला और स्थिरता करके पूर्ण दशाको प्रान हुये है, समलिये उनसे उपगमें भी पुरुपार्य द्वारा आत्माकी सची श्रद्धा और स्थिरता करनेकी या गुणा आती है।