________________
- सम्यग्दर्शन हैं कि-पहले सम्यग्दर्शन-सम्यग्ज्ञानसे जो आत्मस्वभाव प्रतीतिमें आया है उस स्वभावकी महिमाके द्वारा वह जितने बलपूर्वक स्वद्रव्यमें एकाग्रता करता है उतनी ही शुद्धता प्रगट होती है। शुद्धताकी प्रथम सीढी शुद्धात्मा की प्रतीति अर्थात् सम्यग्दर्शन है। सम्यग्दर्शनके बाद पुरुषार्थके द्वारा क्रमशः स्थिरताको बढ़ाकर अन्तमें पूर्ण स्थिरताके द्वारा पूर्ण शुद्धता प्रगट करके मुक्त हो जाता है । और सिद्धदशामें अक्षय अनंत आत्मसुखका अनुभव करता है । मिथ्यात्वका त्याग करके सम्यग्दर्शन प्रगट करनेका ही यह
-उत्पाद-व्यय-ध्रौव्यप्रश्न-द्रव्य त्रिकाल स्थिर रहनेवाला है, उसका कभी नाश नहीं होता और वह कभी भी दूसरे द्रव्यमें नहीं मिल जाता, इसका क्या आधार है ? यह क्यों कर विश्वास किया जाय ? हम देखते हैं कि दूध इत्यादि अनेक वस्तुओंका नाश हो जाता है, अथवा दूध (वस्तु) मिटकर दही (वस्तु) बन जाता है, तब फिर यह कैसे कहा जा सकता है कि एक द्रव्य दूसरे द्रव्यमें नहीं मिलता ?
उत्तर-वस्तु स्वरूपका ऐसा सिद्धान्त है कि जो वस्तु है उसका कभी भी नाश नहीं होता, और नो वस्तु नहीं है उसकी उत्पत्ति नहीं होती तथा जो वस्तु है उसमें रूपान्तर होता रहता है । अर्थात् स्थिर रहकर बदलना ( Parmanency with a change) वस्तुका स्वरूप है। शास्त्रीय भाषामें इस नियमको "उत्पाद व्यय ध्रौव्य युक्तं सत्" के रूपमें कहा गया है। उत्पाद व्ययका अर्थ है अवस्था (पर्याय ) का रूपान्तर और ध्रौव्यका अर्थ है वस्तुका स्थिर रहना-यह द्रव्यका स्वभाव है।
-अस्ति-नास्तिद्रव्य और पर्यायके स्वरूपमें यह अन्तर है कि द्रव्य त्रिकाल स्थिर है, वह वदलता नहीं है, किन्तु पर्याय क्षणिक है, वह प्रतिक्षण बदलती रहती है। पर्यायके बदलने पर भी द्रव्यका नाश नहीं होता। द्रव्य अपने