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-* सम्यग्दर्शन हॉ किसी तीव्र पुरुषार्थी पुरुषके यह दोनों मिथ्यात्व एक साथ भी दूर हो जाते हैं।
जो अगृहीत मिथ्यात्वको दूर कर लेता है उसके गृहीत मिथ्यात्व तो दूर हो ही जाता है, किन्तु गृहीत मिथ्यात्वके दूर हो जानेपर भी अनेक जीवोंके अगृहीत मिथ्यात्व दूर नहीं होता । कुगुरु, कुदेव और कुशास्त्र तथा लौकिक मूढ़ताकी मान्यताका त्याग करके एवं देव, गुरु, शास्त्रको पहिचान कर जीवने व्यावहारिक स्थूल भूलका (गृहीत मिथ्यात्वका ) त्याग तो अनेक बार किया, और असत् निमित्तोंका लक्ष छोड़कर सत् निमित्तोंके लक्ष से व्यवहार शुद्धि की, परन्तु अनादिकालसे चली आई अपनी आत्म संबंधी महा भूलको जीवने कभी दूर नहीं किया। यह अनादिकालीन अPहीत मिथ्यात्व आत्माकी यथार्थ समझके बिना दूर नहीं हो सकता।
__गृहीत मिथ्यात्वका त्याग करके और द्रव्यलिगी साधु होकर अनंत बार निरतिचार पंच महाव्रत पालन किये किन्तु महाव्रतकी क्रियासे और रागसे धर्म मान लिया, इसलिये उसकी महा मूल दूर नहीं हुई और संसार में परिभ्रमण करता रहा।
सच्चे निमित्तोंको स्वीकार करके व्यावहारिक असत्यका त्याग तो किया किन्तु अपने निरालंबी चैतन्य स्वरूप आत्माको स्वीकार नहीं किया, इसलिये निश्चयका असत्य दूर नहीं हुआ। आत्म स्वरूपकी खबर न होनेसे निमित्तके लक्षसे-शुभ रागसे-देव गुरु शास्त्रसे अज्ञानी लाभ मानता है, यह पराश्रितताका अनादिकालीन भ्रम मूलमेंसे दूर नहीं हुआ, इसलिये सूक्ष्म भूल रूप अगृहीत मिथ्यात्व दूर नहीं हुआ। आत्मप्रतीतिके विना थोड़े समयके लिये गृहीत मिथ्यात्वको दूर करके शुभ रागके द्वारा स्वर्गमें नौवें प्रैवेयक तक गया, किन्तु मूलमें विपरीत मान्यताका सद्भाव होनेसे रागमे लाभ मानकर और देव पदमें सुख मानकर वहांसे परिभ्रमण करता हुआ तीव्र अज्ञानके कारण एकेन्द्रिय-निगोदकी तुच्छ दशामें अनन्तकाल तक अनन्त दुःख प्राप्त किया। अपने स्वरूपको समझनेकी परवाह न करनेसे और