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- सम्यग्दर्शन कभी किसीने उत्पन्न ही नहीं किया उस वस्तुका कभी नाश नहीं हो सकता। मैं जन्मसे मरण तक ही हूँ ऐसी जीवकी महाविपरीत मान्यता है। क्योंकि जीव यह मानता है कि मेरे मरणके वाद नो पैसा रहेगा उसका विल करूं, परन्तु वह यह नहीं विचार करता कि मरनेके बाद मैं न जाने कहाँ जाने वाला हूँ, इसलिये अपने आत्म कल्याणके लिये कुछ करूं। अनादि कालसे चली आने वाली और किसीके द्वारा न सिखाने पर भी बनी हुई जो महाविपरीत मान्यता है उसे अग्रहीत मिथ्यात्व कहते हैं। ऐसी विपरीत मान्यता स्वयं अपने आप ही करता है, उसे कोई सिखाता नहीं है। जैसे वालकको रोना सिखाना नहीं पड़ता उसीप्रकार मैं जन्म-मरण तक ही हूँ; इसप्रकारको मान्यता किसीके सिखायें विना ही हुई है। जो शरीर है सो मैं हूँ । रुपया पैसामें मेरा सुख है, इत्यादि परवस्तुमें अपनेपनकी नो मान्यता है सो अग्रहीत विपरीत मान्यता है, जो जीवके अनादिकालसे चली आ रही है।
__ जो शरीर है सो मैं हूँ। शरीरके हलन चलनकी क्रिया मैं कर सकता हूँ इसप्रकार अज्ञानी जीव मानता है। और शरीरको अपना मानने से वाहरकी जिस वस्तुसे शरीरको सुविधा मानता है उसपर प्रीति और राग हुये बिना नहीं रहता । इसलिये उसके अव्यक्तरूपमें ऐसी मान्यता बन जाती है कि मुझे पुण्यसे सुख होता है। बाहरकी सुख सुविधाका कारण पुण्य है । यदि मैं पुण्य करूं तो मुझे उसका फल मिलेगा इसप्रकार किसीके द्वारा सिखाये बिना ही अनादि कालसे मिन्याज्ञान चला आ रहा है। जीव यह अनादि कालसे मान रहा है कि मुझे पुण्यसे लाभ होता है और परका कुछ कर सकता हूँ।
जिसने यह माना कि शरीर मेरा है और यद्यपि किसी परसें सुख सुविधा नहीं होती तथापि जिस पदार्थसे वह अपने शरीरके लिये सुख सुविधा होती हुई मानता है उसपर उसे प्रीति होती है। और वह यह मानता है कि पुण्यसे शरीरको सुख सुविधा मिलती है इसलिये अनादि कालसे यह मान रहा है कि पुण्यसे लाभ होता है। पुण्यसे मुझे लाभ होता