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• भगवान श्री कुन्दकुन्द-कहान जैन शास्त्रमाला
२०३ ': सकता है । अपने स्वरूपकी जो सबसे बड़ी घोरातिघोर भयंकर भूल है वह । कबसे चली आ रही है ?
___ क्या वर्तमानमें तेरे वह मूल विद्यमान है ? यदि वर्तमान में भूल है तो पहले भी भूल थी, और यदि पहले बिल्कुल भूल रहित होगया होता तो वर्तमानमें भूल नहीं होती । पहले पक्की-कभी न हटनेवाली यथार्थ समझ-मान्यता करली हो और वह यदि दूर हो गई हो तो ? इस प्रश्नका समाधान करते हैं
जिसे थोड़ा सच्चा ज्ञान हुआ हो वह ज्ञानमें कभी भूल नहीं होने देता। जैसे मैं दशाश्रीमाली वणिक् हूँ इसप्रकारका ज्ञान स्वयं कभी भूल नहीं जाता, मैं दशाश्रीमाली वणिक हूँ यह नाम तो जन्म होनेके बाद स्वयं माना है २५-५० वर्षसे शरीरका नाम मिला है, आत्मा कुछ स्वयं बनिया नहीं है तथापि वह रटते स्टते कितना दृढ़ होगया है ? नब भी बुलावें तब कहता है कि मैं बनिया हूँ' मैं कोली भील नहीं हूँ, इसप्रकार अल्प वर्षों से मिले हुये शरीरका नाम भी नहीं भूलता तो पर वस्तु-शरीर-वाणी मन, बाहरके संयोग तथा परकी ओरके मुकावसे होनेवाले राग-द्वेषके विकारी भावोंसे भिन्न अपने शुद्ध आत्माका पहले पक्का ज्ञान और सच्ची समझ की हो तो उसे कैसे भूल सकता है ? यदि पहले पक्की सच्ची समझ की हो तो वर्तमानमें विपरीतता न हो, चूकि वर्तमानमें विपरीतता दिखाई देती है इससे सिद्ध है कि पहले भी जीवने विपरीतता की थी।
तू-आत्मा अनंत गुणका पिंड अनादि अनंत है। उन अनंत गुणों में एक मान्यता-श्रद्धा नामका गुणकी अवस्था तेरी विपरीततासे अनादि कालसे स्वयं विपरीत करता आया है और उसे तू आगे ही बढ़ाता चला . जारहा है। वह भूल-विपरीतता वर्तमान अवस्थामें है इसलिये वह टाली जा सकती है।
-अग्रहीतमिथ्यात्वतू अनादि कालसे आत्मा नामक वस्तु है । मैं नन्मसे मरण तक ही होता हूँ इसप्रकारकी धारणा, विपरीत धारणा है क्योंकि जिस वस्तुको