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-* • पनि किसी एक गुणकी विपरीत अवस्था है और वह अवस्था है इसलिये समय समय पर बदलती है । इसलिये मिथ्यात्व एक समयकी अवस्था होनेसे दूर किया जा सकता है। -जीवके किस गुणकी विपरीत अवस्था मिथ्यात्व या भूल है ?
मैं कौन हूँ ? मेरा सच्चा स्वरूप क्या है ? जो यह क्षणिक सुख दुःख का अनुभव होता है वह क्या है ? पुण्य पापका विकार क्या है ? पर वस्तु देहादिक मेरे हैं या नहीं इसप्रकार स्व-परकी यथार्थ मान्यता करनेवाला जोगुण है उसकी विपरीतदशा मिथ्यात्व है। अर्थात् आत्मामें मान्यता (श्रद्धा) नामका त्रिकाल गुण. है और उसकी विपरीत अवस्था मिथ्यात्व है।
. जीवकी जैसी विपरीत मान्यता होती है वह वैसा ही आचरण करता है अर्थात् जहाँ जीवकी मान्यतामें भूल होती है वहाँ उसका श्राचरण विपरीत ही होता है जीवकी मान्यता उल्टी हो और आचरण सच्चा हो, ऐसा कभी भी नहीं हो सकता । नहाँ विपरीत मान्यता होती है वहाँ ज्ञान भी उल्टा ही होता है।
___ मिथ्या' का अर्थ है विपरीत, उल्टा अथवा झूठा और त्व' अर्थात् उससे युक्त । यह भूल बहुत बड़ी और भयंकर है क्योंकि जहाँ मिथ्या-मान्यता होती है वहाँ आचरण और ज्ञान भी मिथ्या होता है. और उस विपरीततामें महान दुःख होता है। ऐसी मिथ्यात्वरूपी भयंकर भूल क्या है ? इस सम्बन्धमें विचार करते हैं ।
स्वरूपकी मान्यता करनेवाला श्रद्धा नामका जीवका जो गुण है. उसे स्वयं अपने आप उल्टा किया है, उसीको मिथ्या मान्यता कहा जाता है । वह अवस्था होनेसे दूर की जा सकती है।
-उस भयंकर भूल को कौन दूर कर सकता है ? वह जीवकी अपनी अवस्था है, इसलिये जीव उसे स्वयं दूर कर