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भगवान श्री कुन्दकुन्द-कहान जैन शास्त्रमाला
२०५ है और जो शरीर है सो मैं हूँ तथा मैं शरीरके कार्य कर सकता हूँ इसप्रकार की विपरीत मान्यता अनादि कालसे किसीके द्वारा सिखाये बिना ही जीव के चली आरही है, यही महाभयंकर दुखकी कारणरूप भूल है। पाप करनेवाला जीव भी पुण्यसे लाभ मानता है क्योंकि वह स्वयं अपनेको पापी नहीं कहलवाना चाहता, अर्थात् स्वयं पाप करते हुये भी उसे पुण्य अच्छा लगता है । इसप्रकार अज्ञानी मिथ्यादृष्टि जीव अनादि कालसे पुण्य को भला-हितकर मान रहा है।
___ अनादिकालसे जीवने पुण्य अर्थात् शास्त्रीय भाषा में कथित मन्द कपायमें लाभ माना है । वह यह मानता ही रहता है कि शरीर तथा शरीरके काम मेरे हैं और शरीरसे तथा पुण्यसे मुझे लाभ होता है। वह जिसे अपना मानता है उसे हेय क्यों मानेगा? यह महा भयंकर भूल निगोदसे लेकर जगतके सर्व अज्ञानी जीवोंके होती है और यही अगृहीत मिथ्यात्व है।
-गृहीत मिथ्यात्वनिगोदसे निकले हुये जीवको कभी मन्द कषायसे मन प्राप्त हुआ और संज्ञी पचेन्द्रिय हुये, उनके विचारशक्ति प्राप्त हुई और वे यह सोचने लगे कि मेरा दुःख कैसे मिटे; तब पहले “जीव क्या है?" यह विचार किया, इसका निश्चय करनेके लिये दूसरे से सुना अथवा स्वयं पढ़ा, वहाँ उल्टा नया भ्रम उत्पन्न होगया । वह नया भ्रम क्या है ? दूसरे से सुनकर यों मानने लगा कि जगत्में सब मिलकर एक ही जीव है शेप सब भ्रम हैं, या तो गुरुसे हमें लाभ होगा अथवा भगवानकी कृपासे हम तर जायेंगे या किसीके आशीर्वादसे कल्याण हो जायगा, अथवा वस्तुको क्षणिक मानकर वस्तुओंका त्याग करें तो लाभ होगा अथवा मात्र जैनधर्मने ही सचाईका ठेका नहीं लिया, इसलिये जगतके सभी धर्म सच्चे हैं इसप्रकार अनेक तरहके बाहरके नये नये भ्रम ग्रहण किये, परन्तु भाई । जैसे 'एक और एक मिलकर दो होते हैं, यह त्रिकाल सत्य है, उसीप्रकार जो वस्तु स्वभाव या वस्तु धर्म है वहीं वीतरागी