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भगवान श्री कुन्दकुन्द-कहान जैन शास्त्रमाला
पर्याय क्षणिक है, द्रव्य त्रिकाल है; त्रैकालिकके ही लक्षसे एकाग्रता हो सकती है और धर्म प्रगट होता है, किन्तु क्षणिकके लक्षसे एकाग्रता नहीं होती, तथा धर्म प्रगट नहीं होता। पर्याय क्रमवर्ती स्वभाव वाली होती है इसलिये वह एक समयमें एक ही होती है, और द्रव्य अक्रमवर्ती स्वभाववाला अनंत पर्यायोंका अभिन्न पिड है जो कि प्रति समय परिपूर्ण है, छद्मस्थके वर्तमान पर्याय अपूर्ण है, और द्रव्य पूर्ण है, इसलिये परिपूर्णता के लक्षसे ही सम्यग्दर्शन और वीतरागता प्रगट होती है, अपूर्णताके लक्षसे सम्यग्दर्शन या वीतरागता प्रगट नही होती, परन्तु उलटा राग उत्पन्न होता है । सम्यग्दर्शन के बाद भी जीवको परिपूर्णताके लक्षसे ही क्रमशः चारित्रवीतरागता और सर्वज्ञता प्रगट होती है।।
मुमुक्षुओंके ऊपरके अनुसार द्रव्य और पर्यायका यथार्थ ज्ञान करके, त्रिकाल द्रव्य स्वभावकी ओर रुचि (उपादेय बुद्धि) करके वहीं एकता करनी चाहिये और पर्यायकी एकत्वबुद्धि छोड़ देनी चाहिये । यही धर्मका उपाय है।
जिसके पर्याय दृष्टि होती है वह जीव रागको अपना कर्तव्य मानता है और रागसे धर्म होना मानता है, क्योंकि पर्यायष्टिमें रागकी ही उत्पत्ति है; और रागका सम्बन्ध पर द्रव्योंके साथ ही होता है इसलिये पर्यायदृष्टिवाला जीव परद्रव्योंके लक्षसे परद्रव्योंका भी अपनेको कर्ता मानता है-इसीका नाम मिथ्यात्व है, यही अधर्म है।
___ किन्तु जिसकी दृष्टि द्रव्यस्वभावकी होगई है वह जीव कभी रागको अपना कर्तव्य नहीं मान सकता और न उसमें धर्म ही मानता है, क्योंकि स्वभावमे रागका अभाव है । जो पर्यायके रागका कर्तृत्व भी नहीं मानता वह पर द्रव्यका कर्तृत्व कैसे मानेगा ? अर्थात् उसके परसे और रागसे भिन्न स्वभावकी दृष्टिमें ज्ञान और वीतरागताकी ही उत्पत्ति हुआ करती है-इसीका नाम सम्यग्दृष्टि है, और यही धर्म है । इसप्रकार द्रव्यदृष्टि वह सम्यग्दृष्टि है ।
__ इसलिये सभी आत्मार्थी जीवोंको अध्यात्मक अभ्यासके द्वारा द्रव्यदृष्टि करनी चाहिये यही प्रयोजनभूत है, द्रव्यदृष्टि कहो या शुद्धनय का अवलम्वन कहो, निश्चगनयका आश्रय कहो या परमार्थ सब एक ही है।