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-* सम्यग्दर्शन हुआ है, रागके कारण नहीं । आत्म के स्वरूपमें राग नहीं है और रागके द्वारा आत्मस्वरूपकी प्राप्ति नहीं होती। त्रिकाल ट्रव्य स्वरूपको स्वीकार किये बिना सम्यग्दर्शन नहीं होता क्योंकि पर्याय तो एक समय मात्रकी ही होती है, और दूसरे समयमें उसकी नास्ति हो जाती है, इसलिये पर्यायके लक्षसे एकाग्रता या सम्यग्दर्शन नहीं हो सकता। केवलज्ञान भी एक समय मात्र की पर्याय है, परन्तु ऐसी अनन्तानन्त पर्यायोंको अभेदरूपसे संग्रह करके द्रव्य विद्यमान है, अर्थात् अनंत केवलज्ञान पर्यायोंको प्रगट करनेकी शक्ति द्रव्यमें है, इसलिये केवलज्ञानकी महिमासे द्रव्य स्वभावकी महिमा अनंतगुनी है, इसे समझनेका प्रयोजन यह है कि पर्यायमें एकत्व बुद्धिको छोड़कर द्रव्य स्वभावमें एकत्व बुद्धिका करना । एकत्व बुद्धिका अर्थ 'मैं यही हूँ' ऐसी मान्यता है। पर्यायके लक्षसे 'यही मैं हूँ' इसप्रकार अपनेको पर्याय जितना न मानकर, त्रिकाल द्रव्यके लक्षसे 'यही मैं हूँ' इसप्रकार द्रव्य स्वभावकी प्रतीति करना सो सम्यग्दर्शन है। केवलज्ञानादि कोई भी पर्याय एक समय मात्रकी अस्तिरूप है, दूसरे समयमें उसकी नास्ति हो जाती है। इसलिये आत्माको पर्याय जितना माननेसे सम्यग्दर्शन नहीं होता, और जो द्रव्य स्वभाव है सो वह त्रिकाल एकरूप सत् अस्तिरूप है। केवलज्ञान प्रगट हो या न हो इसकी भी जिसे अपेक्षा नहीं है ऐसे उस स्वभावको मानने से ही सम्यग्दर्शन प्रगट होता है।
एक अवस्थामें से दूसरी अवस्था नही होती, वह द्रव्यमें से ही होती है अर्थात् एक पर्याय स्वयं दूसरी पर्यायके रूपमें परिणमित नहीं होती किन्तु क्रमबद्ध एकके बाद दूसरी पर्यायके रूपमें द्रव्यका ही परिणमन होता है, इसलिये पर्याय दृष्टिको छोड़कर द्रव्य दृष्टिके करनेसे ही शुद्धता प्रगट होती है।
पर्याय खंड-खंडरूप है, वह सदा एक समान नहीं रहती। और द्रव्य अखंडरूप है वह सदा एक समान रहता है। इसलिये द्रव्यदृष्टिमे शुद्धता प्रगट होती है।