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________________ भगवान श्री कुन्दकुन्द - कहान जैन शास्त्रमाला १६७ में होता है । जैसा आनन्द सिद्धभगवानको प्राप्त है उसी भॉतिके आनन्दका अंश वर्तमान में अपने अनुभव में आता है । सम्यग्दर्शनके होने पर वह जीव निकट भविष्य में ही अवश्यमेव सिद्ध हो जायेगा । वर्तमानमें ही अपने परिपूर्ण स्वभावको प्राप्त करके सम्यग्दृष्टि जीव कृतकृत्य होजाता है, और पर्याय में प्रतिक्षण वीतराग आनन्दकी वृद्धि होती जाती है । वे स्वप्नमें भी पर पदार्थको अपना नहीं मानते, और परमें या विकार में सुख बुद्धि नहीं होती । सम्यग्दर्शनकी ऐसी अपार महिमा है । यह सम्यग्दर्शन ही आत्माके धर्मका मूल है । इसलिये ज्ञानीजन कहते है कि इस सम्यग्दर्शन के बिना जीवने सब कुछ किया तो इससे क्या ? सम्यग्दर्शनके बिना समस्त व्यर्थ हैं, अरण्य रोदनके समान है, बिना इकाईके शून्य समान है । यह सम्यग्दर्शन किसी भी परके श्राश्रयसे या विकल्पके अवलंबनसे नहीं होता कितु अपने शुद्धात्म स्वभाव के ही आश्रयसे होता है । स्वभावका आश्रय लेते ही विकल्पका आश्रय छूट जाता है । किन्तु विकल्पके लक्षसे विकल्पके आश्रयको दूर करना चाहे तो वह दूर नहीं हो सकता । 1 .. धर्मी जीवका धर्म स्वभावके आश्रय से स्थिर है । उसके सम्यग्दर्शनादि धर्मको किसी परका आश्रय नही है । जब कि यह बात है तव धर्मी जीवके यदि रुपया पैसा मकान इत्यादिका संयोग न हो तो इससे क्या ? और यदि बहुतेरे शास्त्रोंका ज्ञान न हो तो इससे क्या ? घर्मी जीवके यह सब न हों तो इससे कहीं उसके धर्ममे कोई बाधा नही आती, क्योंकि धर्मी का धर्म किसी परके आश्रय, रागके आश्रय या शास्त्र ज्ञानके आश्रय पर अवलम्बित नही है, किन्तु अपने त्रिकाल स्वभावके ही आधार पर धर्मीका धर्म प्रगट हुआ है, और उसीके आधार पर टिका हुआ है, और उसीके आधार पर वृद्धिगत होकर पूर्णताको प्राप्त होता है । जिग ४२. द्रव्यदृष्टि और पर्यायदृष्टि तथा उसका प्रयोजन [ नियमसार प्रवचनकी चर्चा से ] गुण पर्यायोंका पिड द्रव्य है । आत्म द्रव्य अपने स्वभावसे टिका
SR No.010461
Book TitleSamyag Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanjiswami
PublisherDigambar Jain Swadhyay Mandir Trust
Publication Year
Total Pages289
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
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