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- सम्यग्दर्शन
त्रिकल्प है सो भी धर्मात्माका कार्य नहीं है । किन्तु स्वभावका अनुभव स्वभावके ही श्राश्रयसे होता है इसलिये शुद्ध स्वभावका आश्रय ही धर्मात्मा का कार्य है ।
'आत्मा शुद्ध है राग मेरा स्वरूप नहीं है, ऐसे विचारका अवलंबन भी सम्यग्दर्शनमें नहीं है, तब फिर देव गुरु, शास्त्रकी भक्ति इत्यादिसे सम्यग्दर्शन होनेकी बात कहाँ रही ? और पुण्य करते २ आत्माको पहिचान हो जाती है, या अच्छे निमित्तोंके अवलननसे आत्माको धर्ममें सहायता मिलती है-ऐसी स्थूल मिथ्या मान्यता तो सम्यग्दर्शन से बहुत बहुत दूर है । दया, दान, भक्ति, व्रत, उपवास, सच्चे देव, गुरु, शास्त्र की श्रद्धा, यात्रा और शास्त्रोंका ज्ञान - यह सब वास्तवमें रागके मार्ग हैं, उनमें से किसीके भी आश्रयसे आत्मस्वभावका निर्णय नहीं होता; क्योंकि आत्मस्वभावका निर्णय तो अरागी श्रद्धा ज्ञानरूप है, वीतराग चारित्र दशा प्रगट होनेसे पूर्व वीतराग श्रद्धा और वीतराग ज्ञानके द्वारा स्वभावका अनुभव करना ही सम्यग्दर्शन और सम्यग्ज्ञान है । और ऐसा अनुभव करने वाला जीव ही समयसार है। ऐसा अनुभव प्रगट नहीं किया और उपरोक्त दया, दान, भक्ति, व्रत, यात्रा इत्यादि सब कुछ किया तो इससे क्या १ऐसा तो अभव्य जीव भी करते हैं ।
प्रश्न: - 'सम्यग्दर्शनके विना व्रत, तप, दान, भक्ति इत्यादि किये तो इससे क्या ?' इसप्रकार 'इससे क्या इससे क्या ?' कहकर इन सब कार्यों को उड़ाये देते हो अर्थात् इन दयादिमें धर्म माननेका निषेध करते हो, तो हम यह भी कह सकते हैं कि एक मात्र आत्माकी पहिचान करके सम्यग्दर्शन प्रगट किया तो इससे क्या क्या मात्र सम्यग्दर्शन प्रगट कर लेनेमे में सब कुछ जाता है ?
उत्तर - सम्यग्दर्शन होजाने से उसीमें सम्पूर्ण आला आता है । सम्यग्दर्शनके होनेपर परिपूर्ण आत्मस्वभावका अनुभव होता है। जो श्रनन्त कालमें कभी नहीं हुई थी ऐसी अपूर्व आत्मशांतिका संवेदन वर्तमान