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-* सम्यग्दर्शन (४३) धर्मकी पहली भूमिका भाग १
-मिथ्यात्वका अर्थपहले हम यह देखलें कि मिथ्यात्वका अर्थ क्या है और मिथ्यात्व किसे कहते हैं एवं उसका वास्तविक लक्षण क्या है ?
मिथ्यात्वमें दो शब्द है (१) मिथ्या और (२) त्व। मिथ्या अर्थात् असत् और त्व अर्थात् पन । इसप्रकार खोटापन, विपरीतता, असत्यता, अयथार्थवा, इत्यादि अनेक अर्थ होते हैं।
__ यहाँपर यह देखना है कि जीवमें निजमें मिथ्यात्व या विपरीतता क्या है क्योंकि जीव अनादि कालसे दुःख भोगता रहता है और वह उसे अनादि कालसे मिटानेका प्रयत्न भी करता रहता है किन्तु वह न तो मिटता है और न कम होता है। दुःख समय समय पर अनन्त होता है और वह अनेक प्रकारका है। पूर्व पुण्यके योगसे किसी एक सामग्रीका संयोग होनेपर उसे ऐसा लगता है कि मानों एक प्रकारका दुःख कम होगया है किन्तु यदि वास्तवमें देखा जाय तो सचमुचमें उसका दुःख कम नहीं हुआ है। क्योंकि जहाँ एक प्रकारका दुःख गया नहीं कि दूसरा दुःख आ उपस्थित होता है।
मूलभूत भूलके विना दुःख नहीं होता। दुःख है इसलिये भूल होती है और भूल ही इस महा दुःखका कारण है। यदि वह भूल छोटी हो तो दुःख कम और अल्पकालके लिये होता है, किन्तु यह बहुत घड़ी भूल है इसलिये दुःख वड़ा और अनादि कालसे है । क्योंकि दुःस अनादि कालका है और वह अनंत है इसलिये यह निश्चय हुआ कि मिथ्यात्व अर्थात् जीव संबंधी विपरीत समझ भूल सबसे बड़ी और अनन्नी है। यदि भयंकर भूल न होती तो भयंकर दुःख न होता । महान भलका पन महान दुःख है, इसलिये महान दुःखको दूर करनेका सगा उपाय मदान, भूलको दूर करना है।