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भगवान श्री कुन्दकुन्द-कहान जैन शास्त्रमाला
१७६ है-तो वह श्रद्धामें तो पुण्य पापका निपेध वर्तमानमें ही करता है। यदि कोई वर्तमानमें श्रद्धामें पुण्य पापका आदर करे तो उसके उनके निषेधकी श्रद्धा ही कहाँ रही ? श्रद्धा तो परिपूर्ण स्वभावको ही वर्तमान मानती है।
जिले स्वभावकी रुचि है-स्वभावके प्रति आदर है और पुण्य पापके विकल्पके निषेधकी रुचि एवं आदर है उसके अंतरंगसे अधैर्य टूट जाता है। अब सपूर्ण स्वभावकी रुचिमें बीचमें जो कुछ भी राग-विकल्प उठता है उसका निषेध करके स्वभावोन्मुख होना सो यही एक कार्य रह जाता है। स्वभावकी श्रद्धाके बलसे उसका निपेध किया सो किया,-अब ऐसा कोई भी विकल्प या राग नहीं आ सकता कि जिसमें एकता बुद्धि हो।
और एकत्वबुद्धिके विना होनेवाले जो पुण्य-पापके विकल्प हैं उन्हें दूर करनेके लिये श्रद्धामें अधैर्य नहीं होता, क्योंकि मेरे स्वभावमें वह कोई है ही नही-ऐसी जहाँ रुचि हुई कि फिर उसे दूर करनेका अधैर्य कैसे हो सकता है ? स्वभावोन्मुख होकर उसका निषेध किया है इसलिये विकल्प अल्पकालमें दूर हो ही जाता है। ऐसा विकल्प नहीं होता कि 'उसका निषेध करू' किन्तु स्वभावमें वह निषेधरूप ही है इसलिये स्वभावका अनुभव-विश्वास करनेपर उसका निषेध स्वयं हो जाता है।
जहाँ आत्मस्वभावकी रुचि रुई कि वहीं पुण्य-पापके निषेधकी - श्रद्धा हो जाती है । आत्मस्वभावमें पुण्य-पाप नहीं है इसलिये आत्मामें पुण्य-पापका निपेध करने योग्य है ऐसी रुचि जहाँ हुई वहीं श्रद्धामें पुण्यपाप-व्यवहारका निपेध हो ही जाता है । रुचि और अनुभवके बीच जो विलम्ब होता है उसका भी निपेध ही है । जिसे स्वभावकी रुचि हो गई है उसे विकल्पको तोड़कर अनुभव करने में भले ही विलम्ब लगे तथापि उन विकल्पोंका तो उनके निपेध ही है। यदि विकल्पका निषेध न हो तो स्वभावकी रुचि कैसी ? और यदि स्वभावकी रुचिके द्वारा विकल्पका निषेध होता है तो फिर उस विकल्पको तोड़कर अनुभव होनेमें उसे शंका कैसी ? रुचि होनेके बाद जो विकल्प रह जाता है उसकी भी रुचि निषेध ही करती