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-* सम्यग्दर्शन है, इसलिये रुचि और अनुभवके बीच काल भेदकी स्वीकृति नहीं है। जिसे स्वभावकी रुचि हो गई है, उसे रुचि और अनुभवके बीच जो अल्पकालिक विकल्प होता है उसका रुचिमें निषेध है, इसप्रकार जिसे स्वभावकी रुचि हो गई है उसे अंतरंगसे अधैर्य नहीं होता, किन्तु स्वभावकी रुचिके चलसे ही वह शेष विकल्पोंको तोड़कर अल्प कालमें स्वभावका प्रगट अनुभव करता है।
आत्माके स्वभावमें व्यवहारका, रागका, विकल्पका निपेध हैअभाव है; तथापि जो व्यवहारको, रागको, या विकल्पको आदरणीय मानता है उसे स्वभावकी रुचि नहीं है, और इसलिये वह जीव व्यवहारका निषेध करके कभी भी स्वभावोन्मुख नहीं हो सकेगा। सिद्ध भगवानके रागादि का सर्वथा अभाव ही हो गया है, इसलिये उन्हें अब व्यवहारका निषेध करके स्वभावोन्मुख होना शेष नहीं रह गया है। किन्तु साधक नीवके पर्यायमें रागादि विकल्प और व्यवहार विद्यमान है इसलिये उमे उस व्यवहारका निषेध करके स्वभावोन्मुख होना है।
हे जीव । यदि स्वभावमें सब पुण्य-पाप इत्यादिका निषेध ही है तो फिर मोक्षार्थी के ऐसा पालम्बन नहीं हो सकता कि-'अभी कोई भी व्यवहार या शास्त्राभ्यास इत्यादि करलू, फिर उसका निषेध कर लूगा। इसलिये तू पराश्रित व्यवहारका अवलंवन छोड़कर स्पष्ट-सीधा चैनन्यको स्पर्श कर और किसी भी वृत्तिके श्रावनकी शल्यमें न अटक | सिद्ध भगवानकी भांति तेरे स्वभावमें मात्र चैतन्य है, उस चैतन्य स्वभावको दी स्पष्टतया स्वीकार कर, उसमें कहीं रागादि दिखाई ही नहीं देते, जय कि रागादिक हैं ही नहीं तव फिर उनके निपेधका विकल्प फैसा ! स्वभावगी श्रद्धाको किसी भी विकल्पका अवलम्बन नहीं होता। जिम स्वभावगे गग नहीं है उसकी श्रद्धा भी रागसे नहीं होती। इसप्रकार सिद्धफे ममान भरने
आत्माके ध्यानके द्वारा मात्र चैतन्य पृथक अनुभयमें आता है, और यहाँ सर्व व्यवहारका निषेध स्वयमेव हो जाता है। यही मापक दारा स्वरुप है।