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________________ १७८ - सम्यग्दर्शन (३६) स्वभावानुभव करनेकी रीति । सिद्ध भगवान ज्ञानसे सव कुछ मात्र जानते ही हैं, उनके ज्ञानमें न तो विकल्प होता है, न रागद्वेष होता है और न कर्तृत्वकी मान्यता होतो है। इसी प्रकार समस्त आत्माओंका स्वभाव सिद्धोंकी ही भाँति ज्ञातृत्व भावसे मात्र जानना ही है । जो इस तत्त्वको जानता है वह जीव अपने ज्ञान स्वभावमें उन्मुख होकर सर्व विकल्पादिका निषेध करता है। उसके ज्ञान स्वभावमें एकत्व बुद्धि प्रगट हुई है और विकल्पकी एकत्व बुद्धि टूट गई है। अव जो विकल्प आते हैं उन सवका निपेध करता हुआ आगे बढ़ता है। साधक लीव यह जानता है कि सिद्धका और मेरा स्वभाव समान ही है। क्योंकि सिद्धोंमें विकल्प नहीं है अतः वे मुझमें भी नहीं हैं। इसलिये मैं अभी ही अपने स्वभावके वलसे उनका निषेध करता हूँ। मेरे ज्ञानमें सभी रागादिका निषेध ही है । जैसे सिद्ध भगवान मात्र चैतन्य हैं उसीप्रकार मैं भी मात्र चैतन्यको ही अंगीकार करता हूँ। ___कभी भी स्वसन्मुख होकर सर्व पुण्य पाप व्यवहारका निपेय करना सो यही मोक्षमार्ग है, तव फिर अभी ही उसका निषेध क्यों न किया जाये ? क्योंकि उसका निषेध रूप स्वभाव अभी ही परिपूर्ण विद्यमान है। वर्तमानमें ही स्वभावकी प्रतीति करनेपर पुण्य पापादि व्यवहारका निषेध स्वयं हो जाता है। जो यह मानता है कि मैं अभी तो पुण्य-पापादिका निपेध नहीं करता किन्तु वादमें निपेच कर दूंगा उमे स्वभावके पनि मनि नहीं है किन्तु पुण्य पापकी ही रुचि है। यदि तुझे स्वभावके प्रति रुचि । और समस्त पुण्य पाप व्यवहारके निषेधकी संचि हो तो स्वभागोन्मुख होकर अभी ही निषेध करना योग्य है, ऐसा निर्णय फर । मधिक लिये पार मर्यादा नहीं होती। श्रद्धा हो किन्तु अद्धाका कार्य न हो ऐमा नी हो सकता। हाँ यह बात अलग है कि प्रद्धाम निपर फरने बाद पुरय पार दूर होने में थोड़ा समय लग जाये, किन्तु जिसे स्वमायी और जिसकी ऐसी भावना है कि पुण्य पारफे निपेश की रक्षा माने योग्य
SR No.010461
Book TitleSamyag Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanjiswami
PublisherDigambar Jain Swadhyay Mandir Trust
Publication Year
Total Pages289
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
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