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भगवान श्री कुन्दकुन्द-कहान जैन शास्त्रमाला कर्मका अवश्य क्षय हो जाता है। इसमें क्षायिक सम्यकदर्शन जैसी बात है। पंचमकालके मुनि पंचमकालके जीवोंके लिये बात करते हैं, तथापि मोहके क्षयकी ही बात की है। क्षयोपशम सम्यक्त्व भी अप्रतिहतरूपसे क्षायिक ही होगा-ऐसी बात ली है। और पश्चात क्रमानुसार अपरूपसे आगे बढ़कर वह जीव चारित्र दशा प्रगट करके केवलज्ञान प्राप्त करके सिद्ध होता है।
सम्यक्त्वकी दुर्लभता काल अनादि है, जीव भी अनादि है और भवसमुद्र भी अनादि है, परन्तु अनादिकालसे भवसमुद्र में गोते खाते हुए इस जीवने दो वस्तुयें कभी प्राप्त नहीं की-एक तो श्री निनवर देव और दूसरा सम्यक्त्व !
[परमात्म-प्रकाश]
आत्मज्ञानसे शाश्वत सुख जो जाने शुद्धात्मको अशुचि देहसे भिन्न, वे ज्ञाता सब शास्त्रके शाश्वत सुखमें लीन ।
[योगसार ८५] जो शुद्ध आत्माको अशुचिरूप शरीरसे भिन्न जानते हैं वे सर्व शास्त्रके ज्ञाता है और शाश्वत सुखमें लीन होते हैं।