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-~~- सम्यग्दर्शन कोई ब्राह्मण जा पहुंचे और मेलेके बीचमें खड़ा हो, तथापि 'मैं ब्राह्मण हूँ'इस बातको वह नहीं भूलता, उसीप्रकार धर्मी जीव अछूतोंके मेलेकी तरह अनेक प्रकारके राज पाट, व्यवहार-धन्धे आदि संयोगों में स्थित दिखाई दें, और पुण्य-पाप होते हों, तथापि वे सोते समय भी चैतन्यका भान नहीं भूलते । आसन बिछाकर बैठे तभी धर्म होता है-ऐसा नहीं है। यह सम्यग्दर्शन धर्म तो निरन्तर बना रहता है।
(२७) यह बात अन्तरमें ग्रहण करने जैसी है। रुचिपूर्वक शान्त चित्त होकर परिचय करे तो यह बात पकड़ में आ सकती है। अपनी मानी हुई सारी पकड़को छोड़कर सत्समागमसे परिचय किये बिना उकतानेसे यह बात पकड़में नहीं आसकती। पहले सत्समागमसे श्रवण, ग्रहण और धारण करके,शान्तिपूर्वक अन्तरमें विचारना चाहिये। यह तो अकेले अतरके विचारका कार्य है, परन्तु सत्समागमसे श्रवण-ग्रहण और धारणा ही, न करे तो विचार करके अन्तरमें किसप्रकार उतारेगा? अन्तरमें अपूर्व रुचिसे उत्साहसे आत्माकी लौ पूर्वक अभ्यास करना चाहिये; पैसे में सुख नहीं है तथापि पैसा मिलनेकी बात कितनी रुचि पूर्वक सुनता है । लेकिन इस वातसे तो आत्माकी मुक्ति प्राप्त हो सकती है। इसे समझनेके लिये अन्तरमें रुचि और उत्साह होना चाहिये । जीवनमें यही करने योग्य है। । (२८) पहले स्वभावकी ओर ढलनेकी बात की उस समय आत्मा को भूलते हारकी उपमा दी थी; और फिर अन्तरंगमें एकाग्र होकर अनुभव किया तब अकम्प प्रकाशवाले मणिकी उपमा दी थी। इसप्रकार जिसका निर्मल प्रकाश मणिकी भॉति अकंपरूपसे वर्तता है-ऐसे उस (चिन्मात्रभाषको प्राप्त हुये ) जीवका मोहांधकार निराश्रयता के कारण अवश्यमेव प्रलयको प्राप्त होता है । जिसप्रकार मणिका प्रकाश पवनसे नहीं कैंपता उसीप्रकार यहाँ आत्माको ऐसीअडिग श्रद्धा हुई कि वह आत्मा की श्रद्धामें कभी डिगता नहीं है। जहाँ जीव आत्माकी निश्चल प्रतीतिम स्थिर हुआ वहाँ मिथ्यात्व कहाँ रहेगा ? जीव अपने स्वभावमें स्थिर हुआ वहाँ उसे मिथ्यात्व कर्मके उदयमे युक्तता नहीं रही, इससे उस मिथ्यात्य