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भगवान श्री कुन्दकुन्द-कहान जैन शास्त्रमाला
१७५ (२५) पहले जो अरिहन्तके द्रव्य-गुण-पर्यायको जानले वह जीव अपने द्रव्य-गुण-पर्यायको जानता है, और पश्चात् अन्तर में अपने अभेद स्वभावकी ओर उन्मुख होकर आत्माको जाननेसे उसका मोह नष्ट होजाता है। मैं अन्तरमें ढलता हूं, इसलिये इसी समय कार्य प्रगट होगा-ऐसे विकल्पोंको भी छोड़कर क्रमशः सहज स्वभावमें ढलता जाता है, वहाँ मोह निराश्रय होकर नाशको प्राप्त होता है।
(२६) इस ८० वी गाथामें भगवान श्री कुन्दकुन्दाचार्य देवने सम्यग्दर्शनका अपूर्व उपाय बतलाया है। जो आत्मा अरिहन्त भगवानके द्रव्य-गुण-पर्यायको जानले उसे अपने आत्माकी खबर पड़े कि मैं भी अरहन्तकी जातिका हूँ, अरिहन्तोकी पंक्तिमें बैठ सकूँ-वैसा मेरा स्वभाव है। ऐसा निश्चित् कर लेनेके पश्चात् पर्यायमें जो कचास (कमी) है उसे दूर करके अरिहन्त जैसी पूर्णता करनेके लिये अपने आत्मस्वभावमें ही एकाग्र होना रहा, इसलिये वह जीव अपने आत्माकी ओर उन्मुख होनेकी क्रिया करता है और सम्यग्दर्शन प्रगट करता है। वह सम्यग्दर्शन प्राप्त करनेकी क्रियाका वर्णन है। यह धर्मकी सबसे पहली क्रिया है। छोटेसे छोटा जैन धर्मी यानी अविरत सम्यग्दृष्टि होनेकी यह बात है। इसे समझे बिना किसी जीवको छह-सातवें गुणस्थानकी मुनि दशा, अथवा पॉचवें गुणस्थानकी श्रावक दशा होती ही नहीं, और पंच महाव्रत, व्रत, प्रतिमा, त्याग आदि कुछ सच्चा नही होता। यह मुनि या श्रावक होनेसे पूर्वके सम्यकदर्शनकी बात है। वस्तु स्वरूप क्या है ? उसे समझे बिना, उतावला होकर बाह्य त्याग करने लग जाये तो उससे कहीं धर्म नहीं होता। भरत चक्रवर्ती के छह खण्डका राज्य था। उनके अरबों वर्ष तक राज-पाटमें रहने पर भी ऐसी दशा थी। जिसने आत्मस्वभावका भान कर लिया उसे सदैव वह भान बना रहता है, खाते-पीते समय कभी भी आत्माका भान न भूले और सदैव ऐसा भान बना रहे वही निरन्तर करना है। ऐसा भान होनेके पश्चात् उसे गोखना नहीं पड़ता। जैसे हजारों अछूतोंके मेलेमें