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* सम्यग्दर्शन
ऐसे अपूर्व सम्यग्दर्शनका लाभ हो । यह बात सुननेको मिलना भी दुर्लभ है ।
( २३ ) अपनी पर्यायको मैं अंतरोन्मुख करता हूँ, पर्यायकी क्रिया में परिवर्तन होता जारहा है, निर्मलतामें वृद्धि होरही है' — ऐसा त्रिकल्प रहे वह राग है । अन्तर स्वभावोन्मुख होनेसे उत्तरोत्तर - प्रतिक्षण वह विकल्प नष्ट होता जाता है । जब आत्माके लक्षसे एकाग्र होने लगता है तब भेदके विकल्पकी क्रियाका क्षय हो जाता है और जीव निष्क्रिय चिन्मात्र स्वभावका अनुभव करता है । - ऐसी सम्यग्दर्शनकी अन्तरक्रिया है, वही धर्मकी प्रथम क्रिया है । आत्मामें जो निर्मल पर्याय प्रगट होती है वह स्वयं धर्म क्रिया है, परन्तु 'मैं निर्मल पर्याय प्रगट करूँ, अभेद आत्मा की ओर पर्यायको उन्मुख करूँ' - ऐसा जो भेदका विकल्प है वह राग है, वह धर्मकी क्रिया नहीं है। अनुभवके समय उस विकल्पकी क्रियाका प्रभाव है इससे — 'निष्क्रिय चिन्मात्र भावको प्राप्त होता है' - ऐसा कहा है । निष्क्रिय चिन्मात्र भावकी प्राप्ति ही सम्यग्दर्शन है । 42378
(२४) मैं ज्ञाता - दृष्टा हूँ, रागकी क्रिया मैं नहीं हूँ- इसप्रकार पहले द्रव्य-गुण-पर्यायका स्वरूप निश्चित करनेमें राग था, किन्तु द्रव्य-गुणपर्यायका स्वरूप जानकर अभेद स्वभावमें ढलनेका ही पहलेसे लक्ष था । द्रव्य-गुण-पर्यायको जान लेनेके पश्चात् भी जहाँ तक भेदका लक्ष रहे वहाँ तक सम्यग्दर्शन नहीं होता; अभेद स्वभावमें ढलने से भेदका लक्ष छूट जाता है और सम्यक्दर्शन होता है । पहले द्रव्य-गुण-पर्यायको जाना उसकी अपेक्षा इसमें अनन्तगुना पुरुषार्थ है । यह अन्तरस्वभावकी क्रिया है, इसमें स्वभावका अपूर्व पुरुषार्थ है । स्वभावके अनन्त पुरुषार्थके बिना यदि संसारसे पार हो सकते तो सभी जीव मोक्षमें चले जाते ! पुरुषार्थके विना यह बात समझमें नहीं आसकती, स्वभावकी रुचि पूर्वक अनन्त पुरुषार्थ होना चाहिये । इसे समझने के लिये धैर्य पूर्वक सद्गुरुगम से अभ्यास करना चाहिये ।