________________
भगवान श्री कुन्दकुन्द - कहान जैन शास्त्रमाला
१७३
राग होता है और अभेद द्रव्य प्रतीतिमें नहीं आता । अभेद - स्वभावकी ओर ढलने से विकल्पका क्षय हो जाता है और आत्माका निर्विकल्प अनुभव होता है । जब जीवको ऐसा अनुभव हुआ तब वह सम्यग्दृष्टि हुआ, जैनधर्मी हुआ। इसके बिना वास्तव में जैनधर्मी नहीं कहलाता ।
सम्यग्दृष्टि यानी पहले में पहला जैन कैसे हुआ जाता है-उसकी यह रीति कही जाती है । आत्मा परके कार्य करता है—ऐसा माने वह तो स्थूल मिथ्यादृष्टि अजैन है । पुण्य-पापके भाव हों उन्हें आत्माका कर्तव्य माने तो वह मिथ्यादृष्टि है, उनके जैन धर्म नहीं है । और, 'अन्तरमें जो निर्मल पर्याय हो उसे मैं करता हूँ' - इसप्रकार आत्मामें कर्ता कर्मके भेद के विकल्पमें रुका रहे तो भी मिथ्यात्व दूर नहीं होता । मेरी पर्याय अन्तरोन्मुख होती है, पहली पर्यायकी अपेक्षा दूसरी पर्याय में अन्तरकी एकाग्रता बढ़ती जाती है' – इसप्रकार कर्ता - कर्म और क्रियाके भेदका लक्ष रहे वह विकल्पकी क्रिया है, अन्तर स्वभावोन्मुख होनेसे उस विकल्पकी क्रियाका क्षय होना जाता है और आत्मा निष्क्रिय ( विकल्पकी क्रिया रहित ) चिन्मात्र भावको प्राप्त होता है; इसलिये वह जीव सम्यग्दृष्टि हुआ, धर्मी हुआ, जैन हुआ । पश्चात् अस्थिरताके कारण उसे जो राग-द्वेषके विकल्प उठें उनमें एकता बुद्धि नहीं होती और स्वभावकी दृष्टि नही हटती, इससे सम्यग्दर्शन धर्म बना रहता है ।
(२२) यह अपूर्व बात है । जिसप्रकार व्यापार-धंधे में व्याज आदि गिननेमें ध्यान रखता है उसी प्रकार यहां आत्माकी रुचि करके बराबर ध्यान रखना चाहिये, अन्तरमें मिलान करना चाहिये । ठीक मांगलिक समय पर अपूर्व बात आयी है । यह कोई अपूर्व बात है, समझने जैसी है - इसप्रकार रुचि लाकर साठ मिनिट तक बराबर लक्ष रखकर सुने तो भी दूसरों की अपेक्षा भिन्न प्रकारका महान पुण्य हो जाये । और यदि श्रात्माका लक्ष रखकर अन्तर में समझे तब तो जो अनन्त कालमें नहीं मिला
1