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- सम्यग्दर्शन
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विचार छोड़कर द्रव्यमें ढलता है तभी सम्यग्दर्शन होता है ।
पर्यायोंको द्रव्यमें अभेद किया और 'ज्ञान वह आत्मा' - ऐसे गुण गुणीके भेदकी वासनाका भी लोप किया वहाँ विकल्प नहीं रहा इसलिवे सफेदीको पृथक् लक्षमें न लेकर उसका हारमें ही समावेश करके जिसप्रकार हारको लक्षमें लेता है, उसीप्रकार ज्ञान और आत्मा - ऐसे दो भेदोंको लक्ष में न लेकर एक आत्म द्रव्यको ही लक्षमें लेता है; चैतन्यको चेतनमें ही स्थापित करके एकाम हुआ कि वहीं सम्यग्दर्शन होता है और मोह नाशको प्राप्त होता है ।
पूर्व
( १७ ) देखो भाई ! यही आत्माके हितकी बात है । यह समझ 'अनन्त काल में एक क्षण मात्र भी नहीं की है। एक क्षण मात्र भी ऐसी प्रतीति करे उसे भव नहीं रहता । इसे समझे बिना लाखों-करोड़ों रुपये इकट्ठे हो जायें तो उससे आत्माको कुछ भी लाभ नहीं है । आपके लक्ष किये बिना उसके अनुभवके अमूल्य क्षणका लाभ नहीं मिलता। जिसने ऐसे आत्माका निर्णय कर लिया उसे आहार विहारादि संयोग हों और पुण्य-पाप के परिणाम भी होते हों; तथापि आत्माका लक्ष नहीं छूटता, आत्माका जो निर्णय किया है वह किसी भी प्रसंगपर नहीं बदलता; इसलिये उसे प्रतिक्षण धर्म होता रहता है ।
(१८) स्वयं सत्यको समझ ले वहाँ मिथ्या अपने आप दूर हो हो जाता है: उसके लिये प्रतिज्ञा नहीं करना पड़ती। कोई कहे कि -अग्नि उष्ण है - ऐसा मैंने जान लिया, अब मुझे 'अग्नि शीतल है' - ऐसा न माननेकी प्रतिज्ञा दो ! लेकिन उसमें प्रतिज्ञा क्या १ अग्निका स्वभाव उष्ण है ही ऐसा जाना वहीं उसे ठन्डा न माननेकी प्रतिज्ञा हो ही गई । उसीप्रकार कोई कहे कि- 'मिश्री कड़वी है' - ऐसा न मानने की प्रतिज्ञा दो ! तो वैसी प्रतिज्ञा नहीं होती । मिश्रीका मीठा स्वभाव निश्चित किया वहाँ स्वयं वह प्रतिज्ञा हो गई । उसीप्रकार जिसने आत्म स्वभावको जाना उसके मिथ्या मान्यता तो दूर हो ही गई । स्वभावको यथार्थ जाना उसमें 'मिथ्या न माननेकी प्रविशा'