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भगवान श्री कुन्दकुन्द-कहान जैन शास्त्रमाला
१७१ आ ही गई। जो सच्चा ज्ञान हुआ वह स्वयं मिथ्या न माननेकी प्रतिज्ञा वाला है। 'मिथ्याको न मानना'-ऐसी प्रतिज्ञा मांगे तो उसका अर्थ यह हुआ कि अभी उसे मिथ्याकी मान्यता बनी हुई है और सत्यका निर्णय नहीं हुआ है । आत्माके गुण-पर्यायको अभेद द्रव्यमें ही परिणमित करके जिसने अभेद आत्माका निर्णय किया उसके अभेद आत्म स्वभावकी प्रतीतिरूप प्रतिज्ञा हुई, वहाँ उससे विपरीत मान्यताएँ दूर हो ही गई; इसलिये विपरीत मान्यता न करनेकी प्रतिज्ञा हो गई। उसीप्रकार जिसने चारित्र प्रगट किया उसके अचारित्र न करनेकी प्रतिज्ञा हो ही गई। ।
(१६ ) इस गाथामें अरिहन्त जैसे आत्माको जाननेकी बात की, उसमें इतना तो आगया कि पात्र जीवको अरिहन्त देवके अतिरिक्त सर्व कुदेवादिकी मान्यता दूर हो ही गई है। अरिहन्तके द्रव्य-गुण-पर्यायको जान कर वहाँ नहीं रुकता परन्तु अपने आत्माकी ओर उन्मुख होता है। द्रव्यगुण और पर्यायसे परिपूर्ण मेरा स्वरूप है, राग-द्वेष मेरा स्वरूप नहीं हैऐसा निश्चित् करके, फिर पर्यायका लक्ष छोड़कर और गुण-भेदका भी लक्ष छोड़कर अभेद आत्माको लक्षमें लेता है-उस समय अकेले चिन्मात्र स्वभावका अनुभव होता है, उसी समय सम्यग्दर्शन होता है और मोहका क्षय हो जाता है।
(२०) आत्माका अनन्त गुणोंका पिण्ड है वह हार है, उसका जो चैतन्य गुण है वह सफेदी है, और उसकी प्रत्येक समयकी चैतन्य पर्याय वह मोती हैं। आत्माका अनुभव करनेके लिये प्रथम तो उन द्रव्य-गुण पर्यायका पृथक २ विचार करता है, पर्यायमें जो राग-द्वेष होता है वह मेरा स्वरूप नहीं है, क्योंकि अरिहन्तकी पर्यायमें राग-द्वेष नही है। राग रहित केवलज्ञान पर्याय मेरा स्वरूप है। वह पर्याय कहॉसे आती है ? त्रिकाली चैतन्य गुणमेंसे वह प्रगट होती है, और ऐसे ज्ञान, दर्शन, सुख, अस्तित्व आदि अनंत गुणोंका एक रूप पिण्ड वह आत्म द्रव्य है। ऐसा जाननेके पश्चात भेदका लक्ष छोड़कर अभेद आत्माको लक्षमें लेकर एक आत्माको