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भगवान श्री कुन्दकुन्द-कहान जैन शास्त्रमाला
(१५) यहॉ मोतियोंके हारका दृष्टान्त देकर समझाते हैं। जिसप्रकार हार खरीदने वाला पहले तो हार, उसकी सफेदी और उसके मोतीइन तीनोंको जानता है, लेकिन जब हार पहिनता है उस समय मोती और सफेदीका लक्ष नहीं होता-अकेले हारको ही लक्षमें लेता है। यहाँ हार को द्रव्यकी उपमा है सफेदीको गुणकी उपमा है और मोतीको पर्यायकी उपमा है। मोहका क्षय करने वाला जीव, प्रथम तो अरिहन्त जैसे अपने आत्माके द्रव्य-गुण-पर्यायको जानता है, परन्तु जहाँ तक इन तीनों पर लक्ष रहे वहाँ तक राग रहता है और अभेद आत्माका अनुभव नहीं होता, इससे द्रव्य-गण-पर्यायको जान लेनेके पश्चात् अब गुण और पर्यायोंको द्रव्यमें ही समेटकर अभेद आत्माका अनुभव करता है, उसकी बात करते हैं। यहाँ पहले पर्यायको द्रव्यमें लीन करनेकी और फिर गुणको द्रव्यमें लीन करनेकी बात की है, कहनेमें तो क्रमसे ही कही जाती है, परन्तु वास्तवमें गुण और पर्याय दोनोंका लक्ष एक ही साथ छूट जाता है। जहाँ अभेद द्रव्यको लक्षमें लिया वहाँ गुण और पर्याय-दोनोंका लक्ष एक ही साथ दूर होगया और अकेले आत्माका अनुभव रहा। मोतीका लक्ष छोड़कर हारको लक्षमें लिया वहाँ अकेला हार ही लक्षमें रहा--सफेदी का भीलक्ष नहीं रहा। उसीप्रकार जहाँ पर्यायका लक्ष छोड़कर द्रव्यको लक्षमें लेकर एकाग्र हुआ वहाँ गुणका लक्ष भी साथ ही हट गया । गुण पर्याय दोनों गौण हो गये और एक द्रव्यका अनुभव रहा। इसप्रकार द्रव्य पर लक्ष करके आत्माका अनुभव करनेका नाम सम्यग्दर्शन है।
(१६) सम्यग्दर्शनके बिना धर्म नहीं होता, इससे यहाँ प्रथम ही सम्यग्दर्शनकी बात बतलाई है। पुण्य-पाप हों वे निषेध करनेके लिये जानने योग्य है परन्तु सम्यग्दर्शनकी रीतिमें पुण्य या पाप नहीं हैं। यहाँ दृष्टांतमें झूलते हुए हारको लिया है, उसीप्रकार सिद्धांतमें परिणमित होते हुए द्रव्यको बतलाना है, द्रव्यका परिणमन होकर पर्यायें आती हैं। उन पर्यायों को त्रिकाली परिणमित होते हुए द्रव्यमें ही लीन करके, और गुणके भेदका
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