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- सम्यग्दर्शन ग्दर्शन प्रगट करने की यह रीति है। सम्यग्दर्शन प्रगट करनेके लिये यह अलौकिक अधिकार है। बहुत ही उच्च और अपूर्व अधिकार आया है। यह अधिकार समझकर स्मरण रखने योग्य और आत्माके अंदर उतारने जैसा है। अपने अन्तर स्वभावमें एकाग्रतासे ही सम्यग्दर्शन और सम्यक्चारित्र प्रगट होता है।
(१३) जिसने अरिहन्त जैसे अपने आत्माको मन द्वारा जान लिया है वह जीव स्वभावके ऑगनमें आया है। परन्तु ऑगनमें आजाने के पश्चात् अव, स्वभावका अनुभव करनेमें अनन्त अपूर्व पुरुपार्थ है । ऑगनमें आकर यदि विकल्पमें ही रुका रहे तो अनुभव नहीं होगा। जैसे-महान् सम्राट-वादशाहके महलके ऑगन तक तो आगया, लेकिन अन्दर प्रविष्ट होनेके लिये हिम्मत होना चाहिये, उसीप्रकार इस चैतन्य भगवानके ऑगन में आनेके पश्चात्-अर्थात् मन द्वारा आत्म स्वभावको जान लेनेके पश्चात् चैतन्य स्वभावके भीतर ढलकर अनुभव करनेके लिये अनन्त पुरुषार्थ हो वही चैतन्यमें ढलकर सम्यग्दर्शन प्रगट करता है, और दूसरे जो नीव शुभ विकल्पमें रुक जाते हैं वे पुण्यमें अटक जाते हैं, उन्हें धर्म नहीं होता। परन्तु यहाँ तो ऑगनमें रुकनेकी बात ही नहीं है। जो जीव स्वभावके ऑगन में आया वह स्वभावोन्मुख होकर अनुभव करेगा ही-ऐसी अप्रतिहत्पनेकी ही वात ली है। ऑगनमें आकर लौट आये-ऐसी बात ही यहाँ नहीं ली है।
(१४) प्रथम मन द्वारा अरिहन्त जैसे अपने आत्मस्वभावको जान लेनेके पश्चात्, अब, अंतरस्वभावोन्मुख होकर सम्यग्दर्शन प्रगट करता है, उसकी बातवतलाते हैं, अब अन्तरमें ढलनेकी बात है । बाह्यमें अरिहंत भगवानका लक्ष तो छोड़ दिया, और अपनेमें भी द्रव्य-गुण-पर्यायके भेद का लक्ष छोड़कर अन्तरके अभेद स्वभावमें जाता है। पहले अरिहन्त जैसे अपने द्रव्य-गुण-पर्यायको जाना-वह भूमिका हुई। अव उस भूमिकासे निकलकर अन्तरमें अनुभव करनेकी बात है। इसलिये बरावर ध्यान रखकर समझना चाहिए !