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भगवान श्री कुन्दकुन्द - कहान जैन शास्त्रमाला
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धर्म नहीं होता, और उपवासादि कर-करके शरीर-मन-वाणीको घिसता रहे उसमें भी कहीं धर्म नहीं होता, परन्तु उन शरीर-मन-वाणी और पुण्य-पापसे रहित त्रिकाली चैतन्यरूप आत्मस्वभाव है, उनकी प्रतीति और अनुभव करे तो सम्यग्दर्शनरूप प्रथम धर्म हो, और पश्चात् उसमें एकाग्रता करनेसे सम्यक् चारित्ररूप धर्म हो । सम्यग्दर्शनके बिना चाहे जितने शास्त्रोंका अभ्यास करले, व्रत-उपवास करे, प्रतिमा धारण करे, पूजा - भक्ति करे या द्रव्यलिगी मुनि होजाये - चाहे जितना करे किन्तु उसे धर्म नही माना जाता और न वह करते करते धर्म होता है । सम्यग्दर्शन होनेसे पहले भी अरिहन्त भगवानके द्रव्य-गुण- पर्यायको जाने और उनके जैसा अपना आत्मा है - ऐसा मनसे निश्चित् करके उसके अनुभवका अभ्यास करे तो उसे धर्मसन्मुख कहा जाता है, वह जीव धर्मके आंगन में गया है ।
—यह
( ११ ) अपना आत्मा अरिहन्त जैसा है—ऐसा जहाँ मनसे जाना वहीं—परके ओरकी एकाग्रता से या पुण्य से आत्माको लाभ होता हैमान्यता दूर होई । शरीर-मन-वाणीकी क्रिया तो आत्मासे भिन्न है और राग द्वेषके भाव होने हैं वे अरिहंत भगवानकी अवस्थामें नहीं है, इसलिये वास्तवमें वे राग द्व ेषके भाव इस आत्माकी अवस्था नहीं है । किसी भी पुण्य-पापके भाव से सम्यग्दर्शन-ज्ञान- चारित्र या केवलज्ञान नही होता । प्रथम मन द्वारा त्रिकाली आत्माको जाना वहाँ इतना तो निश्चित होगया । प्रथम मनसे तो पूर्ण आत्म स्वभावको जान लिया; 'ऐसे आत्माकी प्रती और अनुभव करने से ही सम्यग्दर्शन होता है; तथा उसमें एकाग्रता होने से ही चारित्र और केवलज्ञान होता है' - ऐसा निश्चित कर लिया; इसलिये अब उस स्त्रभाव की ओर उन्मुख होना ही रहा । वह जीव स्वभावकी ओर उन्मुख होकर मोहका क्षय किसप्रकार करता है - वह बात आचार्य भगवान हारका दृष्टांत देकर बहुत ही स्पष्ट समझायेंगे ।
(१२) स्वभावोन्मुखता करके मोहका क्षय करनेकी और सम्य