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* सम्यग्दर्शन नाकसे, जीभसे या स्पर्शसे ज्ञात नहीं होता, मन द्वारा या राग द्वारा भी वास्तव में वह स्वभाव ज्ञात नहीं होता। इन्द्रियों और सनका अवलम्बन छोड़कर स्वभावोन्मुख हो उस अतीन्द्रिय ज्ञानसे ही आत्मस्वभाव ज्ञात होता है। यहाँ 'मन द्वारा आत्माको जान लेता है। ऐसा कहा है, वहाँ तक अभी सम्यग्दर्शन नहीं हुआ है, अभी तो रागवाला ज्ञान है । मनका अवलम्बन छोड़कर अभेद स्वभावको सीधे ज्ञानसे लक्षमें ले तव सम्यग्दर्शन होता है । सम्यग्दर्शन कैसे हो- उसकी यह रीति है।
' । (१०) जिसप्रकार दियासलाईके सिरेमें अग्नि प्रगट होनेका स्वभाव है,-वह ऑख, कान आदि किन्हीं इन्द्रियोंसे ज्ञात नहीं होता, परन्तु ज्ञान द्वारा ही ज्ञात होता है। प्रथम दियासलाईके सिरेमें अग्नि प्रगट होने की शक्ति है-इसप्रकार उसके स्वभावका विश्वास करके फिर उसे घिसनेसे अग्नि प्रगट होती है, उसीप्रकार आत्मामें केवलज्ञान प्रगट होनेका स्वभाव है, वह स्वभाव किन्हीं इन्द्रियों द्वारा दिखाई नहीं देता, परन्तु अतीन्द्रिय ज्ञानसे ही ज्ञात होता है। प्रथम परिपूर्ण स्वभावका विश्वास करके पश्चात उसमें एकतारूपी घिसारा (घिसनेकी क्रिया) करनेसे केवलज्ञान ज्योति प्रगट होती है। शरीर-मन-वाणी तो दियासलाईकी पेटीके समान हैं, जिसप्रकार दियासलाईको पेटीमें अग्नि होनेकी शक्ति नहीं है, उसी प्रकार उन शरीरादि में केवलज्ञान होनेकी शक्ति नहीं है, और पूजा भक्ति आदि पुण्यभाव या हिसा-चोरी आदि पाप भाव उस दियासलाई के पिछले भाग जैसे है। जिसप्रकार दियासलाईके पिछले भागमें अग्नि प्रगट होनेकी शक्ति नहीं है, उसीप्रकार उन पुण्य-पापमें सम्यग्दर्शन या फेवलान होने की शक्ति नहीं है। तो वह शक्ति काहेमें है ? सम्यग्दर्शन-ज्ञान-वाग्नि
और केवलज्ञान होनेकी शक्ति तो चैतन्य स्वभावमें है। पहले उस राभावको प्रनीति करनेसे सम्यकदर्शन और सम्यग्नान होता है, और पान उगमें एकाग्रता करनेसे सम्यक्चारित्र और केवलज्ञान होता है, इसके अतिरिक्त अन्य प्रकारते धर्म नहीं होता। स्वभावकी प्रतीति न करे और पुण्य-पार को घिसता रहे, पूजा भक्ति म्रतमं शुभराग करता रहे तो उनसे सम्मान