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भगवान श्री कुन्दकुन्द-कहान जैन शास्त्रमाला
१६५ या देव-गुरु-शास्त्र तो ( मोरनी की भॉति ) पर वस्तु हैं, उसमें से केवलज्ञान प्रगट होनेकी शक्ति नहीं आयी है, और पुण्य-पापके भाव ऊपरवाले छिलके के समान हैं, उसके केवलज्ञान होनेकी शक्ति नहीं है। आत्माका स्वभाव अरिहन्त जैसा है वह, शरीर-मन-वाणीसे तथा पुण्य-पापले रहित है, उस स्वभावमें केवलज्ञान प्रगट होनेकी शक्ति है। जिसप्रकार अन्डे में बड़े-बड़े विषैले सोको निगल जानेवाला मोर होनेकी शक्ति है, उसीप्रकार मिथ्यात्वादिका नाश करके केवलज्ञान प्राप्त करे वैसी शक्ति प्रत्येक आत्मामें है। चैतन्य द्रव्य, चैतन्य गुण और ज्ञाता-दृष्टारूप पर्यायका पिण्ड आत्मा है, उसका स्वभाव मिथ्यात्वको बनाये रखनेका नहीं परन्तु उसे निगल जाने का-कष्ट करनेका है। ऐसे स्वभावको पहिचाने उसके मिथ्यात्वका क्षय हुए बिना न रहे । परन्तु, जैसे—अण्डेमें मोर कैसे होगा ?-ऐसी शंका करके उसे हिलाये-डुलाये तो उसका रस सूख जाता है, और मोर नहीं होता, उसीप्रकार आत्माके स्वभाव सामर्थ्यका विश्वास न करे और 'इस समय आत्मा भगवान के समान कैसे होगा ??-ऐसी स्वभावमें शंका करे तो उसे सम्यग्दर्शन नहीं होता, और न मोह दूर होता है। सम्यग्दर्शनके बिना कभी धर्म नहीं होता। /nacs
(६) अब, मोरके अंडे में मोर होनेका स्वभाव है, वह स्वभाव किसप्रकार ज्ञात होता है ? वह स्वभाव किन्हीं इन्द्रियोंके द्वारा ज्ञात नहीं होता । अंडेको हिलाकर सुने तो कान द्वारा वह स्वभाव ज्ञात नही होगा; हाथके स्पर्शसे भी उसका स्वभाव ज्ञात नहीं होगा, ऑखसे भी दिखलाई नहीं देगा, नाक से उसके स्वभावकी गंध नहीं आयेगी और न जीभसे अण्डे का स्वभाव ज्ञात होगा। इसप्रकार अण्डेमें मोर होनेकी शक्ति है वह किन्हीं इन्द्रियों द्वारा ज्ञात नहीं होती परन्तु ज्ञानसे ही ज्ञान होती है। स्वभावको जाननेका ज्ञान निरपेक्ष है, किन्हीं इन्द्रियादिकी उसे अपेक्षा नहीं है। किसी भी वस्तुका स्वभाव अतीन्द्रिय ज्ञानसे ही ज्ञात होता है। उसीप्रकार आत्मा में केवलज्ञान होनेका स्वभाव विद्यमान है, वह स्वभाव कानसे, ऑखसे,