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- सम्यग्दर्शन जान लेता है । मैं चेतन ज्ञाता-दृष्टा हूँ, और यह जो जाननेकी पर्याय होती है वह मैं हूँ, रागादि होते हैं वह मेरे ज्ञानका स्वरूप नहीं है, इसप्रकार स्वसन्मुख होकर मन द्वारा जिसने अपने आत्माको जाना वह जीव आत्माके सम्यग्दर्शनके आँगनमें आया है । किसी बाह्य पदार्थसे आत्माको पहिचानना वह अज्ञान है। आत्मा लखपति या करोड़पति नहीं है, लक्ष्मी तो जड़ है उसका स्वामी आत्मा नहीं है। आत्मा तो अनन्तपति है, अपने अनन्त गुणों का स्वामी है। अरिहन्त भगवानको तेरहवें गुणस्थानमें जो केवलज्ञानादि दशा प्रगट हुई-वह सब मेरा स्वरूप है, और भगवानके राग-द्वेप तथा अपूर्ण ज्ञान दूर होगये वह आत्माका स्वरूप नहीं था इसीसे दूर होगये हैं, इसलिये वे रागादि मेरे स्वरूपमें भी नहीं हैं । मेरे स्वरूपमें राग-द्वप पासव नहीं हैं अपूर्णता नहीं है। आत्माकी पूर्ण निर्मल राग रहित परिणति हो मेरी पर्यायका स्वरूप है, इतना समझा तव जीव सम्यग्दर्शनके लिये पात्र हुआ है। इतना समझने वालेका मोहभाव मंद होगया है, और कुठेवकुगुरु-कुशास्त्रकी मान्यता तो छूट ही गई है।
(८) तीनलोकके नाथ श्री तीर्थंकर भगवान कहते है कि मेग और तेरा आत्मा एक ही जातिका है, दोनोंकी एक ही जाति है। जैमा मेरा स्वभाव है वैसा ही तेरा स्वभाव है। केवलज्ञान दशा प्रगट हुई वह वाहरने नहीं प्रगटी है, परन्तु आत्मामें शक्ति है उसीमें से प्रगटी हुई है। तेरे आत्मामें भी वैसी ही परिपूर्ण शक्ति है। अपने श्रात्माकी शक्ति अरिहन्न जैसी है, उसे जो जीव पहिचाने उसका मोह नष्ट हुए बिना न रहे।
वैसे मोरके छोटेसे अंडे में साढ़े तीन हायका मोर होनेका सभार भरा है, इससे उसमेंसे मोर होता है। मोर होनेकी शक्ति मोरनीमने नती आयो, और अडेके ऊपर वाले छिलकेमेसे भी नहीं पायी है, परन्तु भीतर भरे हुए रसमें वह शक्ति है। उसी प्रकार आत्मामें फेयामान प्रगट होनेकी शक्ति है, उससे फेवलजानका विकास होता है। रागर-मन-या