________________
भगवान श्री कुन्दकुन्द-कहान जैन शास्त्रमाला
१६३ नहीं है, और जड़की किया तो मुझमें कभी नहीं है"-इसप्रकार जो अरिहन्त जैसे अपने आत्माको मनसे बराबर जान लेता है वह जीव आत्मस्वभावके ऑगनमें आया है। यहाँ तो, जो जीव स्वभावके आँगनमें आगया वह अवश्य ही स्वभावमें प्रवेश करता है-ऐसी ही शैली है। आत्माके स्वभावकी निर्विकल्प प्रतीति और अनुभव वह सम्यक्त्व है, वह अपूर्व धर्म है । वह सम्यग्दर्शन प्रगट करनेके लिये जीव प्रथम तो अपने आत्माको मन द्वारा समझ लेता है । कैसा समझता है ? मेरा स्वभाव द्रव्य-गुण-पर्यायसे अरिहन्त जैसा ही है। जैसे अरिहन्तके त्रिकाल द्रव्य-गुण है वैसे ही द्रव्य-गुण मुझमें हैं। अरिहन्तकी पर्यायमें राग द्वेष नहीं है और मेरी पर्यायमें राग-द्वेप होते हैं वह मेरा स्वरूप नही है,इसप्रकार जिसने अपने आत्माको राग-द्वेष रहित परिपूर्ण स्वभाववाला निश्चित् किया वह जीव सम्यग्दर्शन प्रगट होनेके ऑगनमें खड़ा है। अभी यहाँ तक मनके अवलम्वन द्वारा स्वभावका निर्णय किया है इससे ऑगन कहा है। मनका अवलम्बन छोड़कर सीधा स्वभावका अनुभव करेगा वह साक्षात् सम्यग्दर्शन है। भले ही पहले मनका अवलम्बन है, परन्तु निर्णय में तो "अरिहन्त जैसा मेरा स्वभाव है"-ऐसा निश्चित् किया है। "मैं राग-द्वेपी हूँ, मै अपूर्ण हूँ, मैं शरीरकी क्रिया करता हूँ"-ऐसा निश्चित् नहीं किया है, इसलिये उसे सम्यग्दर्शनका ऑगन कहा है।
(६) यह गाथा बहुत उच्च है, इस एक ही गाथामें हजारों शास्त्रोंका सार आजाता है । क्षायिक सम्यग्दृष्टि होकर केवलज्ञान प्राप्त करेऐसी इस गाथामें वात है। श्रेणिक राजा इस समय नरकमें हैं, उन्हें क्षायिक सम्यग्दर्शन है। इस गाथाके कथानुसार अरिहन्त जैसे अपने आत्माका भान है। भरत चक्रवर्तिको छह खण्डका राज्य था, तथापि क्षायिक सम्यकदर्शन था, अरिहन्त जैले अपने आत्म स्वभावका भान एक क्षण भी च्युत नहीं होता था। एसा सम्यग्दर्शन कैसे प्रगट हो उसकी यह बात है।
(७) अरिहन्त जैसे अपने आत्माको पहले तो जीव मन द्वारा