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________________ १५५ भगवान श्री कुन्दकुन्द-कहान जैन शास्त्रमाला उसका भी निषेध करता है और जानता है कि यह दोष चारित्रका है, वह मेरी श्रद्धाको हानि पहुँचानेमें समर्थ नहीं है, ऐसा दर्शनाचारका अपूर्व सामर्थ्य है। दर्शनाचार (सम्यकदर्शन ) ही सर्व प्रथम पवित्र धर्म है। अनन्त पर द्रव्योंके काममें मैं कुछ निमित्त भी नहीं हो सकता, अर्थात् परसे तो भिन्न, ज्ञाता ही हूँ और आसक्तिका जो रागद्वेष है वह भी मेरा स्वरूप नहीं है, वह मेरे श्रद्धा स्वरूपको हानि पहुंचानेमें समर्थ नहीं है-ऐसा दर्शनाचारकी प्रतीतिका जो बल है सो अल्पकालमें मोक्ष देने वाला है; अनन्त भवका नाश करके एक भवावतारी बना देनेकी शक्ति दर्शनाचारमें है। दर्शनाचारकी प्रतीतिको प्रगट किये बिना रागको कम करके अनन्त बार बाह्य चारित्राचारका पालन करनेपर भी दर्शनाचारके अभावमें उसके अनंत भव दूर नहीं हो सकते। पहले दर्शनाचारके बिना कदापि धर्म नहीं हो सकता। श्रद्धामें परसे भिन्न निवृत्त स्वरूपको मान लेनेसे ही समस्त रागादि की प्रवृत्ति और संयोग छूट ही जाते हों सो बात नहीं है, क्योंकि श्रद्धा गुण और चारित्र गुणमें भिन्नता है इसलिये श्रद्धा गुणकी निर्मलता प्रगट होने पर भी चारित्र गुणमें अशुद्धता भी रहती है। यदि द्रव्यको सर्वथा एक श्रद्धा गुण रूप ही माना जाय तो श्रद्धा गुणके निर्मल होनेपर सारा द्रव्य संपूर्ण शुद्ध ही हो जाना चाहिये, किन्तु श्रद्धा गुण और आत्मामें सर्वथा एकत्वअभेद भाव नहीं है इसलिये श्रद्धा गुण और चारित्र गुणके विकासमें क्रम बन जाता है। ऐसा होनेपर भी गुण और द्रव्यके प्रदेश भेद न माने, श्रद्धा और आत्मा प्रदेशकी अपेक्षासे तो एक ही हैं। गुण और द्रव्यमें अन्यत्व भेद होनेपर भी प्रदेश भेद नहीं है । वस्तुमें एक ही गुण नहीं किन्तु 'अनन्त गुण हैं और उनमें अन्यत्व नामका भेद है, इसलिये श्रद्धाके होनेपर तत्काल ही केवलज्ञान नहीं होता। यदि श्रद्धा होते ही तत्काल ही संपूर्ण केवलज्ञान हो जाय तो वस्तु अनन्नगुण ही सिद्ध नहीं हो सकेंगे।
SR No.010461
Book TitleSamyag Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanjiswami
PublisherDigambar Jain Swadhyay Mandir Trust
Publication Year
Total Pages289
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
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