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- सम्यग्दर्शन
गुणमें कोई लाभ होता हो सो बात नहीं है । क्योंकि श्रद्धा गुण और चारित्र गुण व भेद है । कषायकी मंदता करना सो चारित्र गुण की विकारी क्रिया है । श्रद्धा और चारित्र गुणमें अन्यत्वभेद है, इसलिये चारित्र विकारकी मंदत्ता सम्यक् श्रद्धाका उपाय नहीं हो जाता, किन्तु परिपूर्ण द्रव्य स्वभावकी रुचि करना ही श्रद्धाका कारण है ।
श्रद्धा गुणके सुधर जाने पर भी चारित्र गुण नहीं सुधर जाता, क्योंकि श्रद्धा और चारित्र गुण भिन्न हैं । रागके कम होनेसे अथवा चारित्र गुणके आचारसे जो जीव सम्यक श्रद्धाका माप करना चाहते हैं वे मिध्यादृष्टि हैं। उन्हें वस्तु स्वरूपके गुण भेदकी खवर नहीं है, क्योंकि सम्यग्दर्शन और सम्यक्चारित्रके आचार भिन्न २ हैं ।
कषायके होनेपर भी सम्यग्दर्शन हो सकता है और एक भवावतारी हो सकता है; तथा अत्यन्त मंद कषाय होनेपर भी यह हो सकता है कि सम्यक्दर्शन न हो और अनन्त संसारी हो । अज्ञानी जीव चारित्रके विकारको मंद करता है किन्तु उसे श्रद्धाके स्वरूपकी खबर नहीं होती । पहले यथार्थ श्रद्धाके प्रगट होनेके बिना कदापि भवका अन्त नहीं होता । सच्ची श्रद्धाके बिना सम्यक्चारित्रका अंश भी प्रगट नहीं होता । ज्ञानी के विशेष चारित्र न हो तथापि वस्तु स्वरूपकी प्रतीति होनेमे दर्शनाचारमें वह निःशंक होता है । मेरे स्वभावमें रागका अंश भी नहीं है, मैं ज्ञान स्वभावी ज्ञाता ही हूँ-जिसने ऐसी प्रतीति की है उसके चारित्र दशा न होनेपर भी दर्शनाचार सुधर गया है, उसे श्रद्धामें कदापि शका नहीं होती। ज्ञानीको ऐसी शंका उत्पन्न नहीं होती कि 'राग होनेसे मेरे सम्यदर्शनमें कहीं दोष तो नहीं आ जायगा' ! ज्ञानीके ऐसी शंका हो ही नहीं मनी, क्योंकि वह जानता है कि जो राग होता है सो चारित्रका दोष है, हिन्दु चारित्रके दोपसे श्रद्धा गुणमें मलीनता नहीं आ जाती। हाँ, जो राग होग है उसे यदि अपना स्वरूप माने अथवा परमें सुबुद्धिमान यो उम श्रद्धामें दोप आता है । यदि सभी प्रतीतिकी भूमिका अशुभ राग हो ज