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भगवान श्री कुन्दकुन्द-कहान जैन शास्त्रमाला
१५३ स्वभावकी स्वाधीनताकी हत्या की गई है इसलिये उसमें अनंत हिंसाका महान पाप होता है।
२–जगत्के समस्त पदार्थ स्वाधीन हैं उसकी जगह उन सबको पराधीन-विपरीत स्वरूप माना तथा जो अपना स्वरूप नहीं है उसे अपना स्वरूप माना, इस मान्यतामें अनन्त असत् सेवनका महापाप है।
३-पुण्यका विकल्प अथवा किसी भी परवस्तुको जिसने अपना माना है उसने त्रिकालकी परवस्तुओं और विकार भावको अपना स्वरूप मानकर अनन्त चोरीका महा पाप किया है।
४-एक द्रव्य दूसरेका कुछ कर सकता है, यो माननेवाले ने स्वद्रव्य परद्रव्यको भिन्न न रखकर उन दोनोंके बीच व्यभिचार करके दोनोंमें एकत्व माना है और ऐसे अनन्त पर द्रव्योंके साथ एकतारूप व्यभिचार किया है यही अनन्त मैथुन सेवनका महापाप है।।
५-एक रजकण भी अपना नहीं है ऐसा होने पर भी जो जीव मैं उसका कुछ कर सकता हूँ इसप्रकार मानता है वह परद्रव्यको अपना मानता है। जो तीनों जगत्के पर पदार्थ हैं उन्हें अपना मानता है इसलिये इस मान्यतामें अनन्त परिग्रहका महा पाप है।
___ इसप्रकार जगत्के सर्व महा पाप एक मिथ्यात्वमें ही समाविष्ट होजाते है इसलिये जगत्का सबसे महा पाप मिथ्यात्व ही है और सम्यग्दर्शनके होने पर ऊपरके समस्त महा पापोंका अभाव होजाना है इसलिये जगन्का सर्व प्रथम धर्म सम्यक्त्व ही है । अतः मिथ्यात्वको छोड़ो और सम्यक्त्वको प्रगट करो। पर
(३१) दर्शनाचार और चारित्राचार
वस्तु और सत्तामें कथंचित् अन्यत्व है। सम्पूर्ण वस्तु एक ही गुण के बराबर नहीं है, तथा एक गुण सम्पूर्ण वस्तु रूप नहीं है । वस्तुमें कथंचित् गुणगुणी भेद है, इसलिये वस्तुके प्रत्येक गुण स्वतन्त्र हैं। श्रद्धा और चारित्र गुण भिन्न २ हैं। चारित्र गुणमें कषाय मंद होनेसे श्रद्धा
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