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________________ १५२ -~* सम्यग्दर्शन पाप-त्रिकाल महापाप तो एक समयके विपरीत अभिप्रायमें है। उस मिथ्यात्वका पाप जगत्के ध्यानमें ही नहीं आता और अपूर्व आत्म प्रतीति के प्रगट होने पर अनन्त संसारका अभाव हो जाता है तथा अभिप्रायमें सर्व पाप दूर होजाते हैं। यह सम्यग्दर्शन क्या वस्तु है इसे जगत्के जीवोंने सुना तक नहीं है। मिथ्यात्वरूपी महान पापके रहते हुये अनन्त व्रत करे, तप करे, देव दर्शन, भक्ति पूजा इत्यादि सब कुछ करे और देश सेवाके भाव करे तथापि उसका संसार किंचित् मात्र भी दूर नहीं होता। एक सम्यग्दर्शन (आत्मस्वरूपकी सच्ची पहिचान) के उपायके अतिरिक्त अन्य जो अनन्त उपाय हैं वे सब उपाय करने पर भी मिथ्यात्वको दूर किये विना धर्मका अंश भी प्रगट नहीं होता और एक भी जन्म मरण दूर नहीं होता, इसलिये यथार्थ तत्त्व विचाररूप उपायके द्वारा सर्व प्रथम मिथ्यात्वका नाश करके शीघ्र ही सम्यक्त्वको प्राप्त कर लेना आवश्यक है। सम्यक्त्वका उपाय ही सर्व प्रथम कर्त्तव्य है। __ यह खास ध्यान रखना चाहिये कि कोई भी शुभभावकी क्रिया अथवा व्रत तप इत्यादि सम्यक्त्वको प्रगट करनेका उपाय नहीं है किन्तु अपने आत्मस्वरूपका ज्ञान और अपने आत्माकी रुचि तथा लक्ष्य पूर्वस सत्समागम ही उसका उपाय है, दूसरा कोई उपाय नहीं है। 'मैं परका कुछ कर सकता हूँ और पर मेरा कर सकना ६ ता पुण्यके करते करते धर्म होता है। इसप्रकारकी मिन्न्यात्वपूर्ण विपरीम गन्यतामें एक क्षण भरमें अनन्त हिंसा है, अनन्त असत्य है, अनन नोग अनन्त अब्रह्मचर्य (व्यभिचार ) है और अनन्न परिग्रह है। मथ्यात्नमें एक ही साथ जगन्के अनन्त पापोंका सेयन है। १- मैं पर द्रव्यका कुल फर सकता है इसका अर्य गह गन्में जो अनन्त पर द्रव्य हैं उन सबको पगधीन माना है और पर मंग छ कर सकता है। इसका अर्थ यह है कि अपने माग ना है। इस मान्यनामें जगाके अनन्त पदार्थोनी और ran
SR No.010461
Book TitleSamyag Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanjiswami
PublisherDigambar Jain Swadhyay Mandir Trust
Publication Year
Total Pages289
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
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