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________________ भगवान श्री कुन्दकुन्द कहान जैन शास्त्रमाला १५१ कोई लड़ाईमें करोड़ों मनुष्योंके संहार करनेके लिये खड़ा हो उसके पापकी अपेक्षा एक क्षणके मिथ्यात्व सेवनका पाप अनन्तगुणा अधिक है । सम्यक्त्वी लड़ाईमें खड़ा हो तथापि उसके मिथ्यात्वका सेवन नहीं है इसलिये उस समय भी उसके अनन्त संसारके कारण रूप बन्धनका अभाव ही है । सम्यग्दर्शनके होते ही ४१ प्रकारके कर्मोंका तो बन्ध होता ही नहीं है । मिथ्यात्वका सेवन करने वाला महा पापी है । जो मिथ्यात्वका सेवन करता है और शरीरादिकी क्रियाको अपने आधीन मानता है वह जीव त्यागी होकर भी यदि कोमल पींछीसे पर जीवका यतन कर रहा हो तो भी उस समय भी उसके अनंत संसारका बंध ही होता है और उसके समस्त प्रकृतियों बंधती हैं और शरीरकी कोई क्रिया अथवा एक विकल्प भी मेरा स्वरूप नहीं है मैं उसका कर्ता नहीं हूँ इसप्रकार की प्रतीतिके द्वारा जिसने मिथ्यात्वका नाश करके सम्यग्दर्शन प्रगट कर लिया है वह जीव लड़ाई में हो अथवा विषय सेवन कर रहा हो तथापि उस समय उसके संसारकी बुद्धि नही होती और ४१ प्रकृतियोंके बंधका अभाव ही है । इस जगत् में मिथ्यात्वरूपी विपरीत मान्यताके समान दूसरा कोई पाप नही है । भाव - आत्माका भान करनेसे अपूर्व सम्यग्दर्शन प्रगट होता है । इस सम्यग्दर्शनसे युक्त जीव लड़ाई में होने पर भी अल्प पापका बंध करता है और वह पाप उसके संसारकी वृद्धि नहीं कर सकता क्योंकि उसके मिथ्यात्वका अनंत पाप दूर होगया है और आत्माकी अभानमें मिथ्यादृष्टि जीव वि पुण्यादिकी क्रियाको अपना स्वरूप मानता है तब वह भले ही पर जीवका यतन कर रहा हो तथापि उस समय उसे लड़ाई लड़ते हुये और विषय भोग करते हुये सम्यग्दृष्टि जीवकी अपेक्षा अनंत गुणा पाप मिथ्यात्वका है, मिथ्यात्वका ऐसा महान पाप है । सम्यग्दृष्टि जीव अल्पकालमें ही मोक्षदशाको प्राप्त कर लेगा ऐसा महान् धर्म सम्यग्दर्शनमें है । जगत् के जीव सम्यग्दर्शन और मिथ्यादर्शनके स्वरूपको ही नहीं समझे वे पापका माप बाहरके संयोगों परसे निकालते है किन्तु वास्तविक
SR No.010461
Book TitleSamyag Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanjiswami
PublisherDigambar Jain Swadhyay Mandir Trust
Publication Year
Total Pages289
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
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