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-* सम्यग्दर्शन प्रत्येक उपायोंके द्वारा सब तरहसे इस मिथ्यात्वका नाश करना चाहिये।"
[मोक्षमार्ग प्रकाशक अध्याय ७ पृष्ठ २७० ] "यह जीव अनादिकालसे मिथ्यादर्शन ज्ञान चारित्ररूप परिणमन कर रहा है और इसी परिणमनके द्वारा संसारमें अनेक प्रकारके दुःख उत्पन्न करनेवाले कर्मोंका संबंध होता है। यही भाव सर्व दुःखोंका वीन है, अन्य कोई नहीं। इसलिये हे भव्य जीवो । यदि तुम दु.खोंसे मुक्त होना चाहते हो तो सम्यग्दर्शनादिके द्वारा मिथ्यादर्शनादिक विभावोंका अभाव करना ही अपना कार्य है । इस कार्यको करते हुये तुम्हारा परम कल्याण होगा।"
[मोक्षमार्ग प्रकाशक अध्याय ४ पृष्ट ६८ ] इस मोक्षमार्ग प्रकाशकमें अनेक प्रकारसे मिथ्यादृष्टियोंके स्वरूप निरूपण करनेका हेतु यह है कि मिथ्यात्वके स्वरूपको समझ कर यदि अपने में वह महान् दोष हो तो उसे दूर किया जाय । स्वयं अपने दोषोंको दूर करके सम्यक्त्व ग्रहण किया जाय । यदि अन्य जीवोंमें वह दोष हो तो उसे देखकर उन जीवों पर कषाय नहीं करना चाहिये । दूसरेके प्रति कपाय करनेके लिये यह नहीं कहा गया है। हाँ, यह सच है कि यदि दूसरोंमें मिथ्यात्वादिक दोष हों तो उनका आदर-विनय न किया जाय किन्तु उन पर द्वेष करनेको भी नहीं कहा है।
__ अपनेमें यदि मिथ्यात्व हो तो उसका नाश करनेके लिये ही यहाँ पर मिथ्यात्वका स्वरूप बताया गया है क्योंकि अनन्त जन्म-मरणका मूल कारण ही मिथ्यात्व है। क्रोध, मान, माया, लोभ अथवा हिंसा, झूठ, चोरी इत्यादि कोई भी अनन्त संसारका कारण नहीं है, इसलिये वास्तवमें वह महापाप नहीं है किन्तु विपरीत मान्यता ही अनन्त अवतारों प्रगट होनेकी जड़ है इसलिये वही महापाप है, उसीमें समस्त पाप समा जाते हैं। जगतमें मिथ्यात्वके बरावर अन्य कोई पाप नहीं है विपरीत मान्यता अपने स्वभावकी अनन्त हिंसा है। कुदेवादिको मानने में तो गृहीतमिथ्यात्र का अत्यन्त स्थूल महापाप है।