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भगवान श्री कुन्दकुन्द-कहान जैन शास्त्रमाला
१४६ भेद है अवश्य । यदि कार्य कारण भेद सर्वथा न हों तो मोक्षदशाको प्रगट करनेके लिये भी नहीं कहा जा सकता। इसलिये अवस्थामें साधक साध्य का भेद है, परन्तु अभेदके लक्ष्यके समय व्यवहारका लक्ष्य नहीं होता क्योंकि व्यवहारके लक्ष्यमें भेद होता है और भेदके लक्ष्यमें परमार्थ-अभेद स्वरूप लक्ष्यमें नहीं आता इसलिये सम्यग्दर्शनके लक्ष्यमें अभेद ही होते । एकरूप अभेद वस्तु ही सम्यग्यदर्शनका विषय है। सम्यग्दर्शन ही शांतिका उपाय है।
अनादिसे आत्माके अखंड रसको सम्यग्दर्शन पूर्वक नहीं जाना इसलिये परमें और विकल्पमें जीव रसको मान रहा है। परन्तु मैं अखंड एकरूप स्वभाव हूँ उसी में मेरा रस है । परमें कहीं भी मेरा रस नहीं है। इसप्रकार स्वभावदृष्टिके बलसे एकवार सबको नीरस बनादे, नो शुभ विकल्प उठते हैं वे भी मेरी शांतिके साधक नहीं हैं। मेरी शांति मेरे स्वरूप में है, इसप्रकार स्वरूपके रसानुभवमें समस्त ससारको नीरस बनादे तो तुमे सहजानन्द स्वरूपके अमृत रसकी अपूर्व शांतिका अनुभव प्रगट होगा, उसका उपाय सम्यग्दर्शन ही है। संसारका अभाव सम्यग्दर्शन से ही होता है ।
अनन्तकालते अनन्त जीव संसारमें परिभ्रमण कर रहे है और अनन्त कालमें अनन्त जीव सम्यग्दर्शनके द्वारा पूर्ण स्वरूपकी प्रतीति करके मुक्तिको प्राप्त हुये हैं इस जीवने संसार पक्ष तो (व्यवहारका पक्ष) अनादिसे ग्रहण किया है-परन्तु सिद्ध परामात्माका पक्ष कभी ग्रहण नहीं किया, अब अपूर्व रुचिसे निःसंदेह बनकर सिद्धका पक्ष करके अपने निश्चय सिद्ध स्वरूपको जानकर-संसारके अभाव करनेका अवसर आया है और उसका उपाय एक मात्र सम्यग्दर्शन ही है। - (३०) हे जीवो ! मिथ्यात्वके महापापको छोड़ो
"मिथ्यात्वके समान अन्य कोई पाप नहीं है, मिथ्यात्वका सदुभाव रहते हुये अन्य अनेक उपाय करने पर भी मोक्ष नहीं होता, इसलिये