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________________ १४४ -* सम्यग्दर्शन लगना सो नय का पक्ष है। मैं आत्मा हूँ, परसे भिन्न हूँ' इसप्रकारका विकल्प भी राग है। इस राग की वृत्तिको-नयके पक्षको उल्लंघन करे तोसम्यग्दर्शन प्रगट हो। 'मैं बंधा हुआ हूँ अथवा मै बंध रहित मुक्त हूँ' इसप्रकारकी विचार श्रेणीको उल्लंघन करके जो आत्माका अनुभव करता है सो सम्यग्दृष्टि है और वही समयसार अर्थात् शुद्धात्मा है । मैं अबन्ध हूँ-बन्ध मेरा स्वरूप नहीं है इसप्रकारके भंगकी विचार श्रेणीके कार्यमें जो लगता है वह अज्ञानी है और उस भंगके विचारको उल्लंघन करके अभंगस्वरूपको स्पर्श करना [अनुभव करना ] सो प्रथम आत्मधर्म अर्थात् सम्यग्दर्शन है। मैं पराश्रय रहित अबन्ध शुद्ध हूँ ऐसे निश्चयनयके पक्षका जो विकल्प है सो राग है और उस रागमें जो अटक जाता है (रागको ही सम्यग्दर्शन मानले किन्तु राग रहित स्वरूपका अनुभव न करे ) वह मिथ्यादृष्टि है। भेदका विकल्प उठता तो है तथापि उससे सम्यग्दर्शन नहीं होता अनादि कालसे आत्म स्वरूपका अनुभव नहीं है, परिचय नहीं है, इसलिये आत्मानुभव करनेसे पूर्व तत्संवन्धी विकल्प उठे विना नहीं रहते । अनादि कालसे आत्माका अनुभव नहीं है इसलिये वृत्तियोंका उत्थान होता है कि-मै आत्मा कर्मके सम्बन्धसे युक्त हूँ अथवा कर्मके संबंध से रहित हूँ इसप्रकार दो नयोंके दो विकल्प उठने है परन्तु 'कर्मके संबंधसे युक्त हूँ अथवा कर्मके सम्बन्धले रहित हूं अर्थात् बद्ध हूं या अवद्ध हूँ' ऐसे दो प्रकारके भेदका भी एक स्वरूपमें कहाँ अवकाश है ? स्वरूप तो नय पक्षकी अपेक्षाओं से परे है, एक प्रकारके स्वरूपमें दो प्रकारकी अपेक्षायें नहीं हैं। मैं शुभाशुभभावसे रहित हूं इसप्रकारके विचारमें लगना भी एक पत्र है, इससे भी उसपार स्वरूप है, स्वरूप तो पक्षातिकांत है यही सम्यग्दर्शन का विषय है अर्थात् उसीके लक्ष्यसे सम्यग्दर्शन प्रगट होता है, इसके अतिरिक्त सम्यग्दर्शनका दूसरा कोई उपाय नहीं है।
SR No.010461
Book TitleSamyag Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanjiswami
PublisherDigambar Jain Swadhyay Mandir Trust
Publication Year
Total Pages289
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
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