________________
भगवान श्री कुन्दकुन्द-कहान जैन शास्त्रमाला
१४५ __ सम्यग्दर्शनका स्वरूप क्या है, देहकी किसी क्रियासे सम्यग्दर्शन नहीं होता, जड़कर्मोंसे नहीं होता, अशुभराग अथवा शुभरागके लक्ष्यसे भी सम्यग्दर्शन नहीं होता और 'मै पुण्य पापके परिणामोंसे रहित ज्ञायक स्वरूप हूं' ऐसा विचार भी स्वरूपका अनुभव करानेके लिये समर्थ नहीं है। "मैं ज्ञायक हूँ' इसप्रकारके विचारमें जो अटका सो वह भेदके विचारमें अटक गया किन्तु स्वरूप तो ज्ञातादृष्टा है उसका अनुभव ही सम्यग्दर्शन है। भेदके विचारमें अटक जाना सम्यग्दर्शनका स्वरूप नहीं है।
जो वस्तु है वह अपने आप परिपूर्ण स्वभावसे भरी हुई है आत्मा का स्वभाव परकी अपेक्षासे रहित एकरूप है कर्मोंके सम्बन्धसे युक्त हूं अथवा कर्मों के सम्बन्धसे रहित हूं, इसप्रकारकी अपेक्षाओंसे उस स्वभावका लक्ष्य नहीं होता। यद्यपि आत्मस्वभाव तो अबन्ध ही है परंतु 'मैं अबंध हूं' इसप्रकारके विकल्पको भी छोड़कर निर्विकल्प ज्ञातादृष्टा निरपेक्ष स्वभावका लक्ष्य करते ही सम्यग्दर्शन प्रगट होता है ।
हे प्रभु ! तेरी प्रभुताकी महिमा अतरंगमें परिपूर्ण है अनादिकालरो उसकी सम्यक् प्रतीतिके बिना उसका अनुभव नहीं होता। अनादिकालसे पर लक्ष्य किया है किन्तु स्वभावका लक्ष्य नहीं किया है। शरीरादिमें तेरा सुख नहीं है, शुभरागमें तेरा सुख नहीं है और शुभरागरहित मेरा स्वरूप है। इसप्रकारके भेद विचारमें भी तेरा सुख नहीं है इसलिये उस भेदके विचारमें अटक जाना भी अज्ञानीका कार्य है और उस नय पक्षके भेदका लक्ष्य छोड़कर अभेद ज्ञाता स्वभावका लक्ष्य करना सो सम्यग्दर्शन है और उसीमें सुख है। अभेदस्वभावका लक्ष्य कहो, ज्ञातास्वरूपका अनुभव कहो, सुख कहो, धर्म कहो अथवा सम्यग्दर्शन कहो वह सब यही है ।
विकल्प रखकर स्वरूपका अनुभव नहीं हो सकता। अखंडानंद अभेद आत्माका लक्ष्य नयके द्वारा नहीं होता। कोई किसी महलमें जानेके लिये चाहे जितनी तेजीरो मोटर दौड़ाये किन्तु वह महलके दरवाजे तक ही जा सकती है, मोटरके साथ महलके अन्दर कमरेमें नहीं घुसा जा सकता।