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भगवान श्री कुन्दकुन्द-कहान जैन शास्त्रमाला
१४३ (२६) सम्यग्दर्शन-धर्म सम्यग्दर्शन क्या है और उसका अवलम्बन क्या है ?
सम्यग्दर्शन अपने आत्माके श्रद्धा गुणकी निर्विकारी पर्याय है। अखंड आत्माके लक्ष्य ते सम्यग्दर्शन प्रगट होता है, सम्यग्दर्शनको किसी विकल्पका अवलम्बन नहीं है किन्तु निर्विकल्प स्वभावके अवलम्बनसे सम्यग्दर्शन प्रगट होता है । यह सम्यग्दर्शन ही आत्माके सर्व सुखका कारण है। 'मैं ज्ञानस्वरूप आत्मा हू, बन्ध रहित हूं' ऐसा विकल्प करना सो भी शुभराग है, उस शुभरागका अवलम्बन भी सम्यग्दर्शनके नहीं है उस शुभ विकल्प को उल्लघन करने पर सम्यग्दर्शन प्रगट होता है। सम्यग्दर्शन स्वयं राग और विकल्प रहित निर्मल गुण है उसके किसी विकारका अवलम्बन नही है किन्तु समूचे आत्माका अवलम्बन है वह समूचे आत्माको स्वीकार करता है।
____एक बार विकल्प रहित होकर अखंड नायक स्वभाव को लक्ष्यमें लिया कि सम्यक प्रतीति हुई। अखंड स्वभावका लक्ष्य ही स्वरूपकी सिद्धिके लिये कार्यकारी है अखंड सत्यस्वरूपको जाने बिना-श्रद्धा किये बिना मै ज्ञान स्वरूप आत्मा हूँ, अबद्ध स्पष्ट हूं' इत्यादि विकल्प भी स्वरूपकी शुद्धिके लिये कार्यकारी नहीं है । एकबार अखण्ड ज्ञायक स्वभावका लक्ष्य करनेके बाद जो वृत्तियाँ उठती हैं वे वृत्तियां अस्थिरताका कार्य करती हैं परन्तु वे स्वरूपको रोकनेके लिये समर्थ नहीं है क्योंकि श्रद्धामें तो वृत्ति-विकल्प रहित स्वरूप है इसलिये जो वृत्ति उठती है वह श्रद्धाको नहीं बदल सकती है जो विकल्पमें ही अटक जाता है वह मिथ्यादृष्टि है विकल्प रहित होकर अभेदका अनुभव करना सो सम्यग्दर्शन है और यही समयसार है। यही बात निम्नलिखित गाथामें कही है:
कम्म बद्धमबद्धं जीवे एवं तु जाण णय पक्खं । पक्रवाति क्वतो पुण भण्णदि जो सो समयसारो ॥१४२।।
'आत्मा कर्मसे बद्ध है या अबद्ध' इसप्रकार दो भेदोंके विचारमें